हे कुंठे ! तू न गई कभी मन से…
हे कुंठे! तू न गई कभी मन से,
तू जब जब ह्रदय में समाई ।
अपने संग संग बैर ,क्रोध ,,
ईर्ष्या ,द्वेष और फिर शत्रुता लाई ।
फिर क्या मित्र और क्या सगे संबंधी ,
अपितु रक्त संबंध पर भी कुदृष्टि डाली।
इसका जीवंत उदाहरण है धृतराष्ट्र ,
जिसने तेरे संग मिलकर अपनी संतति उजाड़ डाली।
राजमुकूट बड़ी बुरी बला थी ,
उस पर संयोग से तू मिल गई ।
बुद्धि ऐसी फिरी,नियंत्रण में ,
फिर किसी के ना आई।
ऐसे में भला किसी की बात ,
कहां समझ में आती है ।
चाहे हो जितना भी दे शीर्ष ज्ञानी
अनुभवी अपना सत्संग ,
परंतु उसकी कोई बात ,
एक आंख न भाती है ।
हे कुंठे! तुझे तो बस एक बार,
मिल जाए दुरबुधि मनुष्य का कुसंग ।
देखा न महाभारत में! शकुनी के ,
कपट ने दुष्टता का कैसा जमाया रंग !
जहां हो तू वहां कोई संतति ,
फल ही नहीं सकती ।
ना किया जाए तेरा निवारण ,
तो जीवन को मुक्ति नहीं मिल सकती ।
प्रेम और त्याग की महत्ता,
भला तू क्या जाने!
तू तो बस स्वार्थ और लालच ,
से वशीभूत होना जाने ।
हे कुंठे ! तू अब भी कहीं नहीं गई है ,
अपितु इस कलयुग में तूने प्रचंड रूप धरा।
पूर्व काल में भी था मनुष्य रक्त पिपासु,
और अब तो उसने दानव का रूप धरा।
यह कुंठा धर सकती है बड़े भयंकर रूप ,
अतः इसे न मन में पलने दीजिए।
बस प्रेम ,त्याग ,स्नेह ,संतोष धन ,
जैसे खजानों से अपना जीवन भरिए ।