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उस समय गाॅंव में किसी के दरवाजे पर ट्रैक्टर होना बहुत बड़ी बात थी। जिसके दरवाजे पर मवेशियों के साथ ट्रैक्टर भी खड़ा रहता था, उनकी गिनती गाॅंव के रसूखदार और हस्ती वाले परिवार में किया जाता था। लोग कहीं आने जाने के लिए ट्रैक्टर के पीछे गद्दा लगाकर बैठते थे और अपने को सामान्य लोगों से बड़ा समझते थे। आजकल वेशकीमती गाड़ी पर बैठकर भी उस आनंद का अनुभव नहीं, जितना कि उस समय ट्रैक्टर में बैठकर यात्रा करने में आता था। मेरे यहाॅं भी नया ट्रैक्टर आया था। अब हम लोग ननिहाल माॅं के साथ ट्रैक्टर ट्रेलर पर ही जाया करते थे। जिस दिन जाना होता था, उस दिन हम लोग सुबह चार बजे निकलते थे और चार-पांच घंटे की यात्रा के बाद वहाॅं पहुॅंच जाते थे। पहले फारबिसगंज से ट्रेन पकड़ कर जाना होता था। गाड़ी फारबिसगंज से चलकर जब ललितग्राम पहुॅंचती थी तो वहाॅं लगभग आधा घंटा चालीस मिनट के लिए रुकती थी। इंजन आगे से खुलकर पीछे की ओर लगती थी, तब कहीं जाकर आगे के लिए गाड़ी बढ़ती थी। ललितग्राम स्टेशन पर उतरकर यात्री चाय नाश्ता करते थे। इस स्टेशन का नाम रेलवे मंत्री ललित बाबू के नाम पर था जिनका पैतृक ग्राम बलुवा बगल में ही था। भारतीय राजनीति में सक्रिय ललित बाबू और जगन्नाथ बाबू का घर नजदीक में होने के कारण राजनीति की बातें भी यहाॅं जमकर होती थी। ललित बाबू के प्रयास से ही यातायात में पिछड़े इस क्षेत्र को रेलवे से जोड़ा गया था।