हे ईर्ष्या ! तू न जाने वाली दिलों से …
जाने क्यों कुछ लोग ,
न खुद जीते है ना ,
औरों को जीने देते हैं।
बेवजह ही औरों के जीवन में ,
खलल डालते रहते हैं।
ना जाने क्यों रास नहीं आता ,
औरों का खुश रहना ।
क्यों किसी की राहों में ,
कांटे बिखरते रहते हैं?
मिल जायेंगी किसी को चंद खुशियां ,
या सुकून के चंद पल ।
तो किसी का क्या बिगड़ जायेगा?
ना जी न ! यह ना मुमकिन है।
हम डूब रहे हैं सनम !
जरूरी है तुम्हारा भी डूब जाना ।
कुछ ऐसी ही सोच लोग ,
अब ज़माने में रखते हैं।
इसे ही तो ईर्ष्या या जलन कहते हैं।