हुजूर बोलिये जरा
को’ई नगर जले न अब, हुजूर रोकिये जरा
रहोगे’ मौन कब तलक, हुजूर बोलिये जरा
बहक रहे हैं’ क्यूँ युवा, दवाब है वो’ कौनसा
सुलग रही है’ आग क्यूँ, हुजूर सोचिये जरा
समाज को न बाँटिये न जाति में न धर्म में
रखा न तोड़ने में’ कुछ हुजूर जोड़िये जरा
सजाइये न महफ़िलें, यहाँ पे रोज शाम को
कभी किसी के अश्रु भी, हुजूर पौंछिये जरा
चलाइये न हाथ मारिये न लात पेट पर
कभी गरीब की दुआ हुजूर लीजिये जरा
न नफरतें बढ़ाइये, गरीब में अमीर में
कभी तो’ बीज प्रेम के, हुजूर बोइये जरा