हिमाकत-ए-दीवाना
नासमझ, वो कैसी,हिमाकत कर बैठा
मुफ़लिस होकर भी,मोहब्बत कर बैठा
सुन पाते ही नहीं जो,आवाज दिल की
उनसे ही उनकी, शिकायत कर बैठा
होना ही है फ़ना उसे,जो इश्क के लिये
रिवाज-ए-जमात से,बगावत कर बैठा
फ़रेब,बेवफ़ाई,खुदगर्जी,भरे जमाने में
बेवकूफ़,उम्मीद-ए- सदाक़त कर बैठा
लगाके दिल अपना,किसी संगदिल से
सुकून से अपने ही,अदावत कर बैठा
समझते नहीं,फ़खत समझाते रहते हैं
वोभी कैसे,लोगों से सोहबत कर बैठा
खुद दिया लिख कर,पता उसका उसे
ये “अश्क” रकीब पे,इनायत कर बैठा
अरविन्द “अश्क”