हिंदी
जब हृदय के भाव बहकर,ऊफान पर आ जाते है
आ जाते है तब भाव बहकर,भाषा वो बन जाते है
भाषाएँ तो जग में हर पग ,रूप बदलती जाती है
जो हृदय में करती बसेरा, मातृभाषा कहलाती है।
गर्व है हम हिंदी है और यह हृदय की भाषा है
लगता जैसे कई जनम से इससे हमारा नाता है
भाषा ये कोमल, मधुर ,हर शब्द जैसे भाता है
प्यारे इसके गीत सुनकर,दिल चैन से सो जाता है।
तुलसी के मानस को सुनकर,भक्ति ही छा जाती है
सूर के गीतों से तो पावन, भावना जग जाती है
मीरा के गीतों से दिल में, करुणा सी भर आती है
और कबीरा को तो सुनकर, माया ही मिट जाती है।
रीतिसिद्ध जो थे बिहारी, उसकी रचना बहुत प्यारी
केशव की रचना भी निराली,दौर था वो तो श्रृंगारी
विरह में घनानंद तड़पा,सुजान थी उसकी तो प्यारी
वीरता से भरी हुई थी, भूषण की कविता सारी-सारी।
आया फिर नवदौर और हिंदी बनी जन की कहानी
भारतेंदु का मंडल था भारी,नवजन्म लेती है कहानी
महावीर ने भाषा सुधारी, गुप्त ने कविता निखारी
हरिऔध की भाषा सुहानी,बुझी हुई थी ज्योत जगानी।
लेखन जगत में सम्राट आया,प्रेमचंद का प्रेम मिला
पात्र उसके भोले-भाले, आजादी को बल मिला
और कई कथाकार आये,सब के सब ही मन को भाये
दौर था वो परतंत्रता का,कैसे विवश थे सब रे हाय!
परिवेश की मृदुल मधुरता ,में खोये हमको पंत मिले
बिन छंद की कविता के निराले,सूर्य से वो कंत मिले
देवी ही ना हमको मिली हमको तो महादेवी मिली
कामायनी के प्यारे सृजक, प्रसाद में खुद शंकर मिले।
ऐसे प्यारे खूब कवि है
चमके ऐसे जैसे रवि है
दिन न केवल रात भी चमके
ऐसी मधुर उनकी छवि है
नाम सबका ले न पाया
इन्हें भले ही देख न पाया
खुश हूँ फिर भी पढ़के इनको
मुझ पर रहेगा इनका साया।
– नन्दलाल सुथार “राही”