हिंदी में हम
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कामना तो है हिंदी बढ़े
गगन तक चढ़े।
पर,
शब्द कितने गये रचे नवीन?
साहित्य को कितना मिला जमीन?
विज्ञानवेत्ताओं ने कितनी दी परिभाषाएं!
सुघड़,सघन हों और पूरें तो आकांक्षाएं।
गणित पहाड़ों से गया है उतर।
भाषा लजाती सी छिपती इधर-उधर।
हिंदी प्रतिद्वंदी बने जरा जल्दी।
उलझने से पहले बने धवल सी।
लोक मानस हिंदी लेकर भ्रमित है।
शिक्षा से रोजगार तक बस सीमित है।
हिंदी देह धरे मन संकल्प से भरे।
हमारी आवश्यक अनिवार्यता बने।
हिंदी के कुछ तो पुरोधा बनें।
लेकर मशाल और ध्वज अपना गुण गनें।
हिंदी ही में हम हैं पले,बढ़े,पढ़े।
बच्चे हमारे क्यों अंग्रेजों के साथ हुए खड़े!
हिंदी नीचे से उपर यात्रा करने में हो समर्थ।
प्राथमिक पाठशालाएँ से विश्वविद्यालयों तक।
प्रतिबद्ध कोई नहीं है कहीं।
क्या तन्मय कहीं है कोई?
साहित्यकारों की कथा अलग है।
क्षुधित व वंचित होकर भी उत्थान में संलग्न है।
हमने पढ़ी थी अंग्रेजी, हिंदी में।
अब हिंदी पढ़ रहे है लोग अंग्रेजी में।
हिंदी हर औद्योगिक इकाई की
वेद-वाक्य ज्यों रहती रही है कार्य-भाषा।
संकोच कैसा रहा है अज्ञात नहीं है यह
बाबुओं की कार्यशैली का बड़ा हिस्सा।
हिंदी के प्रवाह को स्थापित करने की है जरूरत।
विरोध को राजनैतिक नहीं नीतिगत होने की है जरूरत।
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