हास्य रचना
—-ग़ज़ल—-
होकर रहेगी अपनी अब जग हँसाई शायद
आफ़त है जिसको हमनें समझा लुगाई शायद
जब से वो आई घर में ख़ामोश हर ज़बां है
लगता है उसने की हो सबकी पिटाई शायद
वो हाथ भी बढाए मेरी तरफ ज़रा सा
लगता है मुझको ऐसे अब मौत आई शायद
हर वक़्त वो डराये मैके का नाम लेकर
जैसे की ऐंड़टेकर उसका हो भाई शायद
निकली करैले जैसी कड़वी जिसे कि मैंने
समझा था छेना बर्फी और रसमलाई शायद
पोकेट से मेरी पैसे ऐसे निकालती है
उसके ही बाप की हो जैसे कमाई शायद
“प्रीतम” ये लग रहा है शादी न की है जिसने
उसको पता था बीवी होती कसाई शायद
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)