हार सहज स्वीकार नहीं है।
यह कैसी है घिरी निराशा ?
भटक रहा तू दर- दर प्यासा,
बाधा अडिग खड़ी पथ होती
सागर के तल मिलता मोती।
जीवन मृदु रसधार नहीं है
हार सहज स्वीकार नहीं है।
विविध रंग में जीवन ढलता
शान्त कहीं तो कहीं उबलता,
है विचित्र जीवन की धारा
तम आता लेकर उजियारा।
पथिक गिरा हरबार नहीं है
हार सहज स्वीकार नहीं है।
गिरने को तू हार न मानो
गिरे बिना उद्धार न मानो,
जीवन गिरके उठ जाना है
गिर -गिरके हमने जाना है।
बिन जीते जयकार नहीं है
हार सहज स्वीकार नहीं है।
अनिल कुमार मिश्र।