हार कर भी जो न हारे
मैं वो पंथी मैं वो राही
मैं मुसाफिर मैं बटोही
चल दिया हूं चल दिया
कर्म पथ पे चल दिया
ठोकरें ही तो सिखाती
पैर उठाके चलना
हार कर भी जो ना हारे
उसी की होती गुनगान…
अपनी जिम्मेदारियों को
हूं बखूबी भी जानता
फिर भी जाने कैसे मैं
गलतियां कर बैठता
क्या यह मेरी है नादानी
है या मेरी बचपना
हार कर भी जो ना हारे
उसी की होती गुनगान…
मैं वो पंथी मैं वो राही
मैं मुसाफिर मैं बटोही
एक ख्वाब के मर जाने से
आश मरा न करती
यही वो ऐसा मोड़ होता
जहां बदलती जिंदगानी
हार कर भी जो ना हारे
उसी की होती गुनगान…
लेखक:- अमरेश कुमार वर्मा
#amreshkumarverma