“हारे कोई भी; हम जीते नहीं”
प्रेम खुद से किया है जो हमने हाँ अब;
दौर तेरा है; हमसे कहते हैं सब।
क्या मैं कहुँ; सब ठहरा ही है,
ये जो आलम है मुझमें हाँ मुझसा कहीं,
जज्बातों में बहता कुछ गहरा सा है।
रीत है प्रीत की; सुन सको तो सुनो !
टुटा भी जो हाँ ठहरा सा है,
चोट को रखा जो तुमने हाँ संभाल,
जो खुद से हाँ छुटे बिखरा सा है।
जमाना भी जमकर है करता सवाल ?
तुम हारे या जीते; करता बवाल,
क्या मैं कहुँ , हुँ शतरंज नहीं;
जीवन मधुर ; कोई रंज है नहीं,
दर्पण सा है अब हृदय का भँवर;
कहानी के पन्ने में किस्से हजार,
हारे कोई भी….हम जीते नहीं….हम जीते नहीं।
©दामिनी ✍? ? ☀️ ? ?
सोमवार ☀️