हां … वो लडके भी अच्छे लगते हैं
कुछ वो लडके भी अच्छे लगते हैं
जो खोए रहते हैं अपने ही ख्यलों में
ओढ़े रहते हैं दर्द की चादर
चौक चौराहों में थाम लेते हैं
बरबस गिरते हुए इंसानों को
खोल देते हैं अपने स्नेहिल स्पर्श से
मन में पड़ आए गांठों को
बिछा देते हैं अपनी पीठ
कि सुखाया जा सके आद्र मन को
हां वो लडके भी अच्छे लगते हैं
जो मार देते हैं दरवाजा मुंह पे
क्यूं कि वो व्यस्त रहते हैं
अपने ही मन की गांठों पे और गांठे डालने में
उन गांठों में असंख्य दर्द के लम्हें बंधे होते हैं
जिस दिन खुलती हैं गांठे
उछल पड़ते हैं शब्दों के तारे
कागज़ के आसमान पे टिमटिमाते हुए
वो कवि हो जाते है,
असंख्य तारों में एक तारा “ध्रुव तारा”
हां … वो लडके भी अच्छे लगते हैं
~ सिद्धार्थ