हां मैं एक मजदूर हूं
अपनों को सुलाने की खातिर, रात-रात जागता हूँ
पेट पर बाँधकर कपड़ा, सुबह घर से भागता हूँ
दो जून रोटी की जुगाड़ में, हर सड़क नाप डाली है
कोशिश आज भी जारी है, मैं एक मज़दूर हूँ
हथौड़ी छैनी लेकर धूप में, हर पल नहाता हूँ
मेहनत की चादर ओढ़ कर, पसीना बहाता हूँ
आलीशान भवन जो खड़े हैं, मेरी ही रचना है
क्या तक़दीर है सड़क पर, सोने को मजबूर हूँ
मुफलिसी के पैबंद तले, ज़िन्दगी सिमट गई है
थकान भी हार कर आज, मुझसे लिपट गई है
दुनिया का बोझ ढोते ढोते, कंधे झुकने लगे हैं
रक्त रंजित पांव से मगर, मैं चला ज़रूर हूँ
घर में मुरझाए चेहरे, अक्सर परेशान करते हैं
भूखे पेट जब सोते हैं, तो बहुत हैरान करते हैं
उम्मीद अभी ज़िंदा है, घर मेरा भी रोशन होगा
सुनता कोई नहीं मगर, संसद में गूंजता ज़रूर हूँ
अर्थव्यवस्था की बुनियाद, अर्थतंत्र का पैमाना हूँ
किस्सा बनकर रह गया, जैसे गुजरा ज़माना हूँ
हसरतों की पोटली लेकर, मारा-मारा फिरता हूँ
जिसकी ये पटकथा है, हाँ मैं वही लाचार मज़दूर हूँ