हाँ मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर(जातिवाद पर तीखा सृजन)
हाँ मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
हैरान हो जाता हूँ इक बीमारी देखकर
थोड़ा ऊबड़खाबड़ हूँ मैं ज़िद्दी बड़ा हूँ
मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
जब देखता हूँ इर्दगिर्द रेंगते हुए
वतन में कुछ जातिवादी कीड़ो को
कुछ कीड़े बड़े कोमल होते हैं
कोमल होते हैं कि दिखते हैं
मुअम्मा है ,ये बाद में पता चलता है
ये बाद में पता चलता है कि वो कीड़े हैं
जो खा रहे हैं इंसानियत को थोड़ा थोड़ा कर
जो लिखा गया उसे ही विधान समझते हैं
दिल धड़कता है उनका भी मग़र जुबान समझते हैं
और वही ज़ुबान अपनी नस्लों को सिखाने में माहिर हैं
क्या होता गर जो उम्रें ना होती तो
शायद ये कीड़े ज़र्रे ज़रे में फैले होते
औऱ खा गए होते इंसानियत को
खा गए होते कमज़ोरों को
खा गए होते उनका वज़ूद भी
उनके निशानों को भी चाट गए होते ये
शायद मुझें जीने ना दिया गया होता मेरे ही वतन में
मेरा वज़ूद भी छिन गया होता इन कीड़ो की बदौलत
यही सोचकर मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
हाँ मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
ग़नीमत है उम्रें तय हैं ,मौसम तय हैं, बदलाव तय है
बड़ा सुन्दर दिख सकता था वैसे वतन का कोना कोना
लेकिन हर कोने कोने में फैले हैं आज भी ये कीड़े
ऐसा भी नहीं इनमें पढ़े लिखें शामिल नहीं
इनमें हर क़द का कीड़ा मिल जाएगा गर देखो तो
मैं इतना तो दयालु हूँ दुआँ कर सकता हूँ
दुआँ कर सकता हूँ ये कीड़े इंसान हो जाएं
इंसानीयत को रहने दें जातिवाद से तौबा करें
आख़िर इंसान हो जाने में इनको हर्ज़ क्या है
सबको बराबर समझने में इन्हें परहेज़ क्यों है
क्यों ये अपनी कोमलता पे इतराते हैं
इंसानों को बाहर से देखकर अंदाज़ा लगाते हैं
बस…यही सोचकर मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
हाँ मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
मेरे मुल्क में जातिवादी कीड़े देखकर
जातिवाद देखकर, जातिवाद बीमारी देखकर
क्या जातिवादी कीड़ो को झुर्रियाँ नहीं आती
क्या उनकी साँसे नहीं रुकती
क्या वो माटी में नहीं मिल जाते
सब के सब माटी में ही तो मिलते हैं ना
फ़िर क्यों अपनी कोमलता, अपने वज़ूद
अपनी बनावट पे ये इतराते हैं
ख़ुद को बड़ा छोटा इस आधार पे बतलाते हैं
हाँ इसी बात पर मैं नाराज़ ही जाता हूँ अक्सर
मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
जब मैं देखता हूँ किसी को किसी की बनावट
किसी के घर ,किसी के ओहदे से पुकारते हुए
उसको उसकी जाति से पुकारते हुए
जो किसी जातिवादी कीड़े के द्वारा बनाई गयी
हाँ मैं नाराज़ हो जाता हूँ ये सब देखकर
आख़िर क्यों चलते हैं लीक लीक ये कीड़े
क्यों रुख़ अपना बदलते नहीं हैं
आख़िर इंसान हो जाने में इनको हर्ज़ क्या है
सबको बराबर समझ लेने में इन्हें परजेज़ क्यों है
पता नहीं मैं क्या था
पर बेरुख़ बन गया ये सब देखकर
मैं बेरुख़ बन गया कि इंसानियत को मानता हूँ
मैं बेरुख़ हो गया ये जातिवाद बीमारी देखकर
जातिवाद देखकर ,जातिवादी कीड़े देखकर
उनकी सोच देखकर ,उनकी लीक देखकर
हाँ मैं नाराज़ हो जाता हूँ अक्सर
हाँ मैं नाराज़……
~अजय “अग्यार