:::: हवा ::::
शीर्षक: “हवा”
(मेरी परछाई, हिन्दी काव्य-संग्रह)
ये हवा का ज़िक्र है
हवा बदल रही है।
कैसी हवा चल रही है
कुछ लोग हैं हवा में
कहीं हवा निकल रही है।।
1.
बातें हवा हैं,
कहीं काम भी हवा हैं।
वादे हवा है,
इंतजाम भी हवा हैं।।
हेर फेर है बस हवा का,
जिंदगी जीने को मचल रही है।
ये हवा का जिक्र है
हवा बदल रही है।।
2.
हवा की आश है,
हवा की तालाश है।
खुशनसीब है हवा तुं,
जन जन का शवास है।।
जिंदगी कभी पास भी है,
कभी हाथों से फिसल भी रही है।
ये हवा का ज़िक्र है,
हवा बदल रही है।।
3.
विकल्प क्या हो सकता है,
व्यवस्था क्या बन सकती है।
हवा को अशुद्ध न होने दो,
ये परमात्मा की दिव्य शक्ति है।।
जीवन बचा भी देती है,
सांस चला भी सकती है।
हवा गर्म हुई जरा भी,
कुदृष्टि पिंघला भी सकती है।।
यही समय भी है,
समय की पुकार भी है।
अब चुकता भी करो,
धरा का हम पर उपकार भी है।।
जीवन दीये सम ही तो है,
ढल भी रहा है।
बत्ती जल भी रही है।
ये हवा का जिक्र है
हवा बदल रही है।।
©एम०एस०डब्ल्यु० सुनील सैनी “सीना”
जीन्द, हरियाणा, भारत।
E-mail: sunilsainicena@gmail.com