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25 Oct 2017 · 1 min read

हवा हूँ —-चली— मैं चली- – –

बहती हूँ- —
हवा हूँ – – –
चली- मैं चली मैं चली– –
पेडो़ं पर हूँ
नदी की तरंगों में हूँ
पता चला है सबके प्राणों में हूँ
चिड़ियों के पंखों की उड़ानों में हूँ
समंदर में उठती लहरों में हूँ
गावों में हूँ “काले धुएँ वाले” शहरों में हूँ
कहाँ से आई! कहाँ मैं चली!
कल चल रही थी, अभी चल रही हूँ
समय की सवारी बनकर चलती रहूँगी
कृष्णा तुमने बताया तो पता चल गया
वेफिक्र, बेखर सदा हूँ मैं।
मुकेश कुमार बड़गैयाँ “कृषणधर द्विवेदी”
Email:mukesh.badgaiyan30@gmail.com

Language: Hindi
562 Views
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