हवा दीपक बुझाकर चल पड़ी है
हवा दीपक बुझाकर चल पड़ी है
मग़र इक घर जलाकर चल पड़ी है
परिंदा ख़ुद कफ़स में आन बैठा
तमन्ना फड़-फड़ाकर चल पड़ी है
वो अर्से से घराना चाहता था
म’ईशत सब भुलाकर चल पड़ी है
तड़पता आब ओ दाने को दर-दर
कज़ा, हस्ती उठाकर चल पड़ी है
मुहब्बत कर के हमने बस ये जाना
हमारा ग़म बड़ाकर चल पड़ी है
ग़मो की ने’मतों को गिन रहे थे
उदासी मय उठाकर चल पड़ी है
किसी ने हाल-ए-दिल को न समझा
तबाही मुस्कराकर चल पड़ी है