हर शायर जानता है
हर शायर जानता है अपना किरदार ,
महफ़िल में आता है दफ़न कर अश्क।
लोगों को हँसाता है तालियों के धून पर ,
भूल जाता है वह भी है आम शख्स।
गज़लें को साधन नहीं साध्य मानता है,
कलम के हर शब्द को आराध्य मानता है।
लिखता है अपनी जिन्दगी के हर मोड़ ,
पाठक कहता है वाह क्या है अफसाना का तोड़।
सूरज सा एक शायर दरख़्त के ओंठ में
खुद को समेट लेता है रात्रि के गोद में
संध्या के निराशा को अंगीकार कर ,
शायर देखता है असलियत जिंदगी के चोट में।
आदत का लाचार है ग़ज़लों का सर नहीं,
कोई हंगामा करें तो आवाजों का हल नहीं।
शायर जानता है खड़ा शायरी के बल पर,
टूटी गई घर की कोई दीवारें तो कल नहीं।