हर गली हर कूचे में बाग़बान मिल जाये
हर गली हर कूचे में बाग़बान मिल जाये
गर इंसान के भीतर इंसान मिल जाये
उधार ना सही नक़दी दुकान मिल जाये
ज़िंदगी का कहीं तो सामान मिल जाये
काश के उँची मुझको उड़ान मिल जाये
शिकारी को फिर चाहे मचान मिल जाये
इस शहर को गर तू मेहमान मिल जाये
इन सूनी गलियों को मुस्कान मिल जाये
फैलाउं जो पंख आसमान मिल जाये
कोई तुमसा गर मेहरबान मिल जाये
नये शहर में कोई हम ज़बान मिल जाये
टूटा- फूटा ही सही मकान मिल जाये
‘सरु’के बिखरे लफ़्ज़ों को तान मिल जाये
कुछ ख़्वाब ओ कोई अरमान मिल जाये