*हर किसी के हाथ में अब आंच है*
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हर किसी के हाथ में ,अब आंच है।
कुछ जल रहे अंगार,बाकी ख़ाक है।
छिल रहा है कांच से , सबका बदन,
कांच से ही कट रहा , वो कांच है।
अब यहां अपना कोई भी न रहा,
उड़ रही रिश्तों में देखो ! राख है।
टूटे हुए पत्ते ने हंस कर ये कहा,
मैं नहीं मुजरिम वो मेरी शाख है।
सब नज़र का ढोंग मायाजाल है,
हर गुनाह में आंख का ही पाप है।
बस यही सोच के हैरान हूं ,
जिंदगी छोटी है , ख्वाहिशें लाख हैं।
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▫️सुधीर कुमार
सरहिंद फतेहगढ़ साहिब पंजाब