हरियाणवी कविता:”मोल चढ़ी का”
हरियाणवी कविता:-“मोल चढ़ी का”
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अपणै मुँह तै की हो बड़ाई,
साँची भी साँची ना लागै।
दूजा करदै झूठी बड़ाई,
वा भी घणी आच्छी है लागै।।
इस दुनिया में मोल चढ़ी का,
माटी-सा है मोल पड़ी का।
घर की मुर्गी दाल बराबर,
सोना होता दूर खड़ी का।
नौ पागल को विद्वान कही,
बात सदा हाँसी है लागै।
दूजा करदै झूठी बड़ाई,
वा भी घणी आच्छी है लागै।।
लकड़ी जलकै आग निकालै,
दीपक जलकै प्रकाश करै।
बादल बरसे पाणी देता,
चलै हवा तो उल्लास करे।
कर्म सदा ही पावन करता,
बात खरी जाँची है लागै।
दूजा करदै झूठी बडा़ई,
वा भी घणी आच्छी है लागै।।
भूख लगी हो घणी जोर की,
सूखी रोटी मीठी होज्या।
प्यास लगी हो घणी जोर की,
एक बूँद मिलै अमृत होज्या।
ज़रूरत पै हो कदर चीज़ की,
चीज़ बडी़ काच्ची है लागै।
दूजा करदै झूठी बडा़ई,
वा भी घणी आच्छी है लागै।।
आर.एस.प्रीतम