हरमन प्यारा : सतगुरु अर्जुन देव
दो मई पन्द्रह सौ तिरसठ,
पंजाब धरा गोइंदवाल।
गुरु रामदास माँ भानी घर,
सचखंड से उतर एक लाल।
सब धर्मों से था प्यार उसे,
सिख पंथ का घर घर प्रचारी।
बचपन से सौम्य स्वभाव का था
गुरुघर सेवा उसे थी प्यारी।
निज पिता को ही सतगुर माना,
गुरु सेवा में सब वार दिया।
गुरु रामदास इस सेवक को,
गुरु गद्दी का उपहार दिया।
हरि की मर्जी सबसे ऊपर,
दया प्रेम भक्ति भरी उनके उर।
बिल्कुल देवों सी आभा थी,
बने अर्जुन जब पँचवें सतगुर।
कई काव्य लिखे गुरवाणी के,
तीसों रागों में माहिर थे।
किया सम्पादन श्री गुरुग्रंथ,
सन्तों के मौर सम जाहिर थे।
छत्तीस महापुरुष की वाणी को,
गुरु ग्रंथ में सहज स्थान दिया।
हर धर्म के भक्तों सन्तों को,
एक सम सबको सम्मान दिया।
है अमर लेख सुखमनी काव्य,
गुरु अर्जुन देव की रचना है।
यह वाणी पढकर सुख मिलता,
त्रय ताप से निश दिन बचना है।
सुखमनी है सुख का परम श्रोत
गउड़ी लय चौबीस अष्टपदी।
हरि पाने की सोपान है यह,
युग बीते या फिर जाये सदी।
रख हरमंदिर आधारशिला,
तरनतारन नगर बसा करके।
गुरु के दरबार में बाँटा था,
रहमत की झोली भर भर के।
पंचम सतगुरु था परम् सरल,
मृदुभाषी शान्त जगत न्यारा।
चहुँ वर्णों के नर नारी जन,
सब कहते थे हरमन प्यारा।
जीवन का सार प्रभु भक्ति,
सबको यह बात बताया था।
और सती प्रथा जैसी कुरीति,
पर कड़ा विरोध जताया था।
सतगुर की कीर्ति लगी बढ़ने,
चहु वर्ण बने जब अनुयायी।
कुछ लोग विरोध लगे करने,
राजा को शिकायत पहुँचाई।
उस काल खंड में अकबर था,
गुरु को दरबार में बुलवाया।
गुरवाणी सुन प्रसन्न हुआ,
अकबर गुर से मिल हरसाया।
कालांतर अकबर गुजर गया,
जहाँगीर बना भारत नरेश।
फरमान दिया इस्लाम शिवा,
कोई अन्य धर्म हो न विशेष।
जहांगीर कठोर विचारों का,
उसकी मनसा सब बने तुर्क।
खुद भी सतगुर से चिढ़ता था,
उसके मन में आ गया फर्क।
पहला जहांगीर विरोधी था
दूजा बैरी था पृथी चंद।
तीसरा था चान्डू शाह दुष्ट,
एक से बढ़कर एक मती मन्द।
जहाँगीर से पृथीचन्द कहा,
अर्जुन का पंथ महा गन्दा।
सब धर्मों पर अवरोध है यह,
अति शीघ्र कसो इस पर फंदा।
इसके गुरुग्रंथ की सब बातें,
हिन्दू इस्लाम विरोधी है।
इसकी शिक्षा हमें दुख देतीं,
सारी रियाया भी क्रोधी है।
जहाँगीर तो ऐसी ताक में था,
गुरु को चान्डू को सौंप दिया।
चान्डू हत्यारा हृदयहीन,
सतगुरु पर अतिसय कोप किया।
यातना दिया अति दुखदायी,
गुरुदेव थे तब भी शांत सरल।
चान्डू हारा दुख दे दे कर,
मन खीझा दिल से हुआ विकल।
तरकीब नई सोचा चान्डू,
चूल्हे पर रख एक बड़ा तवा।
गुरुदेव को उस पर बैठाकर,
चूल्हे की आग को दिया हवा।
लोहे का तवा था बहुत गरम,
सिर ऊपर गरम रेत डाले।
गुरु अर्जुन शांत सरल शीतल,
हरि इच्छा में थे मतवाले।
बस एक ही वाक्य उचरते थे,
तेरा कीया मीठा लागे।
कुछ और कि चाह नहीं हरि जू,
हरि नाम पदारथ नित मांगे।
मियां मीर गुरु का सेवक था,
गुरु दशा देखकर कर टूट गया।
कर जोरे अरज किया गुरु से,
मुझसे क्यों गुर तू रूठ गया।
मेरे सांई मुझको आज्ञा दो,
चुन चुन कर सब बदला लूंगा।
सौगन्ध गुरु तेरे चरणों की,
मुगलों की ईंट बजा दूँगा।
मुस्कान भरे सतगुर बोले,
इतना बल तूने कहां पाया।
सर रखकर गुर के चरणों में,
है कृपा तेरी मेरे हरिराया।
सेवक में जब इतनी शक्ति,
तब मालिक में कितनी होगी।
मेरे मीर अधीर न हो विचलित,
न मन में बन प्यारे रोगी।
गुरू देव ने मीर को समझाया,
जो हो रहा उसकी मर्जी है।
हरि का भाणा सबसे ऊपर,
फिर न अपील न अर्जी है।
सतगुर को सबमें प्रभु दिखता,
किसी के प्रति न अरुणा भरते।
सन्तों का हृदय है माखन सा,
दुश्मन पर भी करुणा करते।
दिन तीस मई सोलह सौ छह,
लाहौर ने गुरु अपमान किया।
सतगुर अर्जुन सतलोक चले,
जनहित में निज बलिदान दिया।
बिन श्राप दिये बिन क्रोध किये,
विपदा में हरि गुन गा के गए।
निज इच्छा से तन छोड़ दिया,
सत्पुरुष की गोद समा के गए।
कई शदियों तक गुरू की शिक्षा,
सूरज सम करे उजियारा है।
सचखंड के शहंशाह तुमको,
कर जोड़े नमन हमारा है।