हम लड़ेंगे जरूर, अपने जख्मों के लिए !
जाड़े के दिनों में,
अंगीठी जला के बैठना,
या गुनगुने धुप में खुद को सेकना
अच्छा लगता है न ?
लेकिन सरकार जिस अंगीठी पे
हमें बैठा के मजे ले रही है,
हमें अपने खेल का मोहरा बना रही है।
उसे धर्म की अंगीठी कहती हूँ मैं,
जिस में सिकते हम हैं,
मजा सेकने बाले को मिलती है,
हमारे दोनों कूल्हे सिक के बेकार
और वो अपनी सारी इन्द्रियों को
मज़ा लेने में लगाए हुए हैं।
जो हमारे लिए अँगीठियाँ जलाते हैं
उनके शब्दों में आग,
और एक हाँथ में बारूद
तो दूसरी में माचिस की तीली
जिस से वो धर्म अंगीठी जलाते हैं।
और हम सिकते जाते हैं तब तक
जब तक हमरा जब्र जबाब न दे दे
अब हम मुहाने पे हैं,
हमारा जब्र जबाब दे चूका है
अब हमें लड़ना ही होगा,
अपने-अपने हिस्से के हथियारों से
तुम मेरे साथी और कुछ नहीं तो हौसलों से लड़ना
मैं भी, अपने हिस्से की कलम से लड़ूंगी
तोड़ूँगी उसे या खुद ही टूट जाऊँगी
मरूंगी मगर लड़ूंगी जरुर,
अपने लिए अपनों के लिए
और हम सब के अपनों के जख्मों के लिए
अपने हिस्से के मान के लिए
अपने अपमान के लिए, और
अपने पूर्वजों के अपमान के लिए
हम लड़ेंगे, हम तब तक लड़ेंगे
जब तक समाज के अंतिम आदमी को
उसका अधिकार नही मिलता !
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29 -12 -2018
मुग्धा सिद्धार्थ