हम रहें आजाद
** गीतिका **
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चाहते पंछी हमेशा हम रहें आजाद।
किन्तु कर पाते नहीं बेबस कहीं फरियाद।
सूखती ही जा रही नदियों की पावन धार।
और बढ़ती जा रही इनमें विषैली गाद।
कौन रोकेगा यहां है चाहतों की दौड़।
और सबको चाहिए बस चटपटा ही स्वाद।
मूक हैं बेबस वनों के जीव सब हैरान।
किन्तु मानव बन गया है आज बस जल्लाद।
खूब उगले जा रहे बादल धुएं के नित्य।
बढ़ रही है वाहनों की विश्व में तादाद।
दे रहे चेतावनी जब युद्ध के हालात।
किस तरह फिर खत्म होगा व्यर्थ का उन्माद।
हर जगह फैला रहा मानव स्वयं के पांव।
स्वर्ग सी पावन धरा को कर दिया बरबाद।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, मण्डी, (हि.प्र.)