हम छोड़ आए हैं तुम को
हम छोड़ आए हैं तुम को
बस इतना ही पहचानते हैं खुद को
जब भी तुम आवाज़ दोगे
रोक न पाएंगे खुद को
जैसे रोक नहीं पाता पहाड़ जल श्रोत को
अपने विशाल और कठोर बाहुपाश में
तराई में उतर सागर की ओर बहने से
जैसे रोक नहीं पाती मजबूत से मजबूत डाली
पत्तों को बयार के साथ झूमने और उड़ने से
जैसे रोक नहीं पाती फूलों की कोमल पंखुड़ियां
हमारी नसों में खुशबु को उतर कर बहकने से
जैसे रोक नहीं पाता बीज खुद को
धरा की छाती फाड अंकुड निकलने से
ठीक वैसे ही, मैं भी नहीं रोक पाउंगी खुद को
तुम्हारे पीठ पर हरसिंगार की तरह बरसने से
तुम्हारी छाती के बालों में
अपने अंतिम सांस में लहकने से
~ सिद्धार्थ