हम खुद को दो हिस्से में बाटेंगे।
ये भी ठीक है कि
तन को तुम जंजीरों से बांधोगे!
पर कहो तो भला…
शब्दों को किस विधि तुम साधोगे..?
अपनी हक की बातें करने को
रोटी-लंगोटी की बांतों पे तनने को
झोपड़ी-खलिहानों के ख़स्ता हालों को
भूखे, रोते-बिलखते नौनिहालों को
दम तोड़ती सरकारी अस्पतालों को
सूखी आँखों और टूटी उम्मीदों के जालों को
क्या इन सब को भी तुम अबके साधोगे ?
जब भूखी आंतों की चीख फलक तक जाएगी
क्या पहरे में शब्दों भावों को भी तुम डालोगे..?
क्या मेघ के गर्जन धरती के कम्पन पे भी ताले डालोगे
क्या रोने – बिलखने भूख के तड़प से एडी के रगड़ने
को भी तुम अपनी संगीनों पे उछालोगे..?
शब्द नही ये ठोकरें हैं
ठोकरों से कब तक तुम बच पाओगे..?
पाहन, पहाड़ तुम जो कुछ भी हो
ठोकरों से धूल में मिल ही जाओगे
हक की बातें करने को
अपनी आवाजें, दर्द और आहें,
बहरे कानों में धरने को
हम तो जंजीरों को भी तोड़ेंगे
हम हैसलों से उठ कर बोलेंगे
कलम को बना कर अपनी बैसाखी
चाहो तो पैरों को भी हम अपने खो लेंगे
तुम रोक हमें कब तक पाओगे..?
आवाज़ों पे किस तरह पहरा बिठाओगे
हम खुद को दो हिस्से में बाटेंगे
जुल्म की हर इक बेड़ी को हम काटेंगे
अपने चुप को भी हम डांटेंगे
तुम अपनी जय जय करते रहो
हम इंकलाबी पर्चे बांटेंगे
~ सिद्धार्थ