हम खाकी वाले है
जुल्म ए बहर में खोकर कब किसने होश सम्भाले है
इलाजे दर्द ना जिसका जी हाँ हम वही खाकी वाले है
तबियत ख़राब हो तो भी ड्यूटी बजाने के आदेश होते
ना पूछो दिल के दर्द हमसें मुँह पर जड़े हुए जैसे ताले है
लगता कि बिजलियाँ भी बेताब है जैसे घर जलाने को
अपने सपनों के आशियाने हमने खुद ही फूँक डाले है
जमाने देखे बदनजर से हमकों जैसे है बुरी नियत हमारी
जैसे लोगों के घर मे जाकर के हमनें कभी डाके डाले है
हम आवाज उठा सकते नहीं क्यों अपने अधिकारों की
रवानगी आमद कर के बूटों से पड़े पांव में हमारे छाले है
मॉं बाप घर मे इंतजार करते यह जानकर नहीं आएगा
जानते बूढ़ी आँखें ये की हम देश पर सदैव मिटने वाले है
कभी मन्दिर कभी मस्जिद नहीं जाते कोई पूजा पाठ नहीं
ख़ाकी वर्दी वालों के मर गए वो सारे शौक जो भी पाले है
बीबी बच्चे राह देखते की हम आकर के उन्हें भी घुमाएंगे
पर राह तकते तकते अपनी इच्छाओं के गले वो दबाले है
रोज पल पल का हिसाब देकर घरवालों को शर्मिदा है हम
मन की दौलत लुटा रहें हम क्योंकि हम बड़े दिलवाले है
हमारे तो मन्दिर और मिट्टी के हरम पुलिस थाने ही ठहरें
भले ही खुश हो या बेजार अपने से पर हम पोलिसवाले हैं
मिट्टी के हरम काबा नामक मुस्लिम का तीर्थ स्थान
बेजार नाख़ुश
अशोक सपड़ा दिल्ली से