हम क्यूं लिखें
हम क्यूँ लिखे अपनी मजबूरियां, क्यूँ लिखें
कि वो ध्यान नहीं रखता मेरे वजूद का
हम क्यूँ लिखें कि हम मोहताज हैं, उसके
और वो समझता नहीं मुझे, कुछ भी
हम क्यूँ लिखें कि उसकी अनकही,तीखी
नज़र भेद देती है मुझे भीतर से, कहीं
हम क्यूँ लिखें, उसकी इच्छाओं के समंदर में
एक लहर भी नहीं बहती मेरे सपनों की
हम क्यूँ लिखें कि उसके घर में रहकर भी
मेरा नहीं हो पाया कोई एक कोना भी
हम क्यूँ लिखें कि उसकी अनगिनत वासनाएं
अक्सर छीन लिया करती हैं बचपन मेरा
अगर लिखना ही है तो हम यह लिखें कि
उसके मकान को घर बना दिया हमने
अपने सपनों की मालाओं को तोड़कर
मोतियों से उस घर को सजा दिया हमने
खोकर अपनी जड़ें भी नहीं सूखे हम
पत्थरों पे ही सपनों की बगिया उगा ली हमने
हम लिखें कि नाम है सब कुछ उसके पर
बना है हमारे ही खून-पसीने की इबारत से
अगर लिखना ही है तो हम यह लिखें कि
उसकी जमीं पर यूँ ही, उग जाते हैं हम
लेकिन उसे तो बोते हैं हम ही अपने अंदर
हम ये लिखें कि उसके दिए हुए परदों से
बुन डाले हैं, हमने पंख अपनी उड़ानों के
हम लिखें कि हमने तुम्हें पौधे से वृक्ष बनाया
सोचकर कि हम भी पनपेंगे तुम्हारी छांव में
पर वो छांव तो अंधेरा ही बन गई धीरे-धीरे
अब पत्तों से आती रोशनी ही सूरज है हमारा
और हम किरणों से उग रहे हैं इस अंधेरे में भी
अब यही लिखना मुकम्मल होगा, न तभी तो
लिखना मुकम्मल होगा हमारा…..