” हमारी जान मांग बैठे”
घर से निकले और जिनके लिये जहान माँग बैठे,
पलटकर वो थोड़ा और सामान माँग बैठे,
हो चली जब उम्र से भी गहरी, हाथों की लकीरें मेरी ,
छुड़ाकर हाथ अपना मुझसे, मेरा तब गिरहबान माँग बैठे,
सीने पे दी थी जो चोट मेरे, रक़ीबों ने उनकी ख़ातिर कभी ,
इशारे से हाथों के उन्होंने, वापस वो निशान माँग बैठे,
क़समें दिलाईं सारी वफ़ा की, निभाया जिन्हे था बरसों मैने ,
मुस्कुरा के उस दिन उन्होंने, बस एक और इम्तिहान माँग बैठे,
भूल जाऊँ यादों को अपनी , हमने गुज़ारी थीं जो कभी ,
और उन्हें भी याद ना आऊँ , ये आख़िरी अहसान माँग बैठे,
वो सोचते हैं माँगा उन्होंने कुछ ज्यादा नही शायद,
जाने अनजाने में वो हमसे हमारी जान मांग बैठे।