#हक़ीक़त
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★ #हक़ीक़त ★
ऐ शराफत तेरे इश्क के जुनून में
न जाने क्या-क्या बक रहा हूँ मैं
दुनिया खुली पड़ी है सामने
बस हिचक रहा हूँ मैं
इक-इक करके दौलतमंद हुए सब
वोटों के सौदागर
कसम रब की हटा लो यह निज़ाम
ज़रा-ज़रा बहक रहा हूँ मैं
इक ज़मीर इक खरीदार बस
शै दो ही बाज़ार में
क्यूँकर कि मैं यहाँ हूँ
क्या तक रहा हूँ मैं
शमशीर ले के आया रहज़न
इबादत के वक़्त में
इक सूरज है मेरे सर पे अब
और, दहक रहा हूँ मैं
मग़रिब से उठा है सूरज
कांधे पोटली ख़्वाबों की
हक़ीक़त बड़ी है तल्ख़
और भटक रहा हूँ मैं
हमवतन हमसफर सब
इक जगह जमा हुए
निगाहों का रुख़ अलग-अलग
अब थक रहा हूँ मैं . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२