हंस
हंस जो उतरा आसमान से
श्वेत रँग तेरे मन के जैसा
उतर धरा पर चुगता मोती
मोती भी देखो आंसू जैसा ।
हिरन के जैसी आँखे मेरी
आस बान्ध कर अब तक बैठी
जग मरुथल की तपती रेत पर
तलाश हो जैसे शीत जल की ।
आँखों में रब की सूरत है ऐसे
चकोर की आँख में चाँद हो जैसे
रीते हाथ की हर लकीर पर
हंस के मन की छाप हो जैसे ।
रब तुम जानो ‘हंस’ कौन है।
जाने क्यों अब भी वक़्त मौन है?
हम ने क्या जाना रब के खेल को
किस्मत और इस वक़्त के मेल को,
हंस तो फिर आया धरा पर
बूंद ओस की चुगता रहता
जोड़ा हंस का उड़ा नहीं है
पंख फैला धरा पर रहता ।
———-डॉ. सीमा (कॉपीराइट)