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28 Jun 2023 · 8 min read

हंस के 2019 वर्ष-अंत में आए दलित विशेषांकों का एक मुआयना / musafir baitha

यादव से चलकर अबतक हंस की प्रगतिकामी परंपरा में दलित एवं स्त्री विमर्श को अहम स्पेस प्राप्त होता रहा है। राजेन्द्र यादव ने 1986 में जो हंस निकाला वह प्रेमचंद की हंस की प्रगतिशील परंपरा को समय की माँग के आसंग में छोड़-पकड़-जोड़ के साथ आगे बढ़ाने के संकल्प के तहत था। हंस का जन्म अंक (अर्थात प्रेमचंद कालीन हंस का प्रथम अंक मार्च 1930) एवं राजेंद्र यादव कालीन प्रथम अंक, अगस्त 1986 के हंस के हाल में आए मार्च 2020 अंक में रिप्रोड्यूस संपादकीयों को पढ़कर भी इस बात की तस्दीक की जा सकती है।

हंस का नवम्बर और दिसम्बर 2019 अंक दलित विशेषांक है जो जानेमाने दलित कथाकार अजय नावरिया के संपादन में आया है। इस अंक की कोई बड़ी समालोचनात्मक चर्चा तो मेरे जानते, किसी बड़े साहित्यिक मंच अथवा स्तर से अभी तक नहीं हुई है लेकिन, हंस के मार्च 2020 अंक में एक कद्दावर दलित लेखक रत्न कुमार सांभरिया की दीर्घ चिट्ठी ‘आलोचनाधर्मिता पर सवाल’ शीर्षक से अपना मोर्चा पत्र-स्तंभ में छपी है जो नवम्बर 2019 के विशेषांक में छपे एक दूसरे कद्दावर दलित आलोचक-कवि कँवल भारती के विवादास्पद आलेख की तल्ख प्रतिक्रिया के रूप में है। सांभरिया का मानना है कि इस आलेख के जरिये आलेखक भारती एवं संपादक नावरिया की दुरभिसंधि के तहत उनका चरित्रहनन किया गया है। चिट्ठी की मार्फ़त उन्होंने अपने आरोप और अपना बचाव रखा है और इन दोनों से हंस के मंच से अपने पूर्वग्रहों पर आगे सफ़ाई देने की चुनौती दी है। मैं भी इस चुनौती को गम्भीर मानता हूँ।

कँवल भारती के दलित कहानी विषयक उक्त आलोचना-लेख पर नजर डालें तो सांभरिया के प्रति उनका एक स्पष्ट पूर्वग्रह नजर आता भी है। भारती की नादानी कहें अथवा पूर्वग्रह कि उन्होंने सांभरिया को आरम्भिक हिंदी दलित कथाकारों में शामिल न कर दूसरी लेखक पीढ़ी के साथ बिठा दिया है। और कोढ़ में खाज यह कि इस पीढ़ी के एक कद्दावर कथाकार, जो इन विशेषांकों के संपादक भी हैं, अजय नावरिया से निरर्थक तुलना करते हुए इस स्थापना के साथ अपने आलेख का अंत कर नावरिया-स्तुति की इंतिहा भी रच दी है कि “ओमप्रकाश वाल्मीकि के बाद दलित कहानी के इस दौर को दलित साहित्य के इतिहास में नावरिया युग कहा जा सकता है।” यह तब है जबकि भारती कहते हैं कि उन्होंने नावरिया की कुछ ही कहानियाँ पढ़ी हैं। हालांकि यह ‘कुछ ही’ पढ़ना भी शीयर रिजेक्शन अथवा टोटल एक्सेप्टेंस का वायस/निर्धारक नहीं हो सकता। चंद्रधर शर्मा गुलेरी को एक कहानी ‘उसने कहा था’ ही अमर कर गई।

लेकिन, चोर की दाढ़ी में तिनका का सवाल दरअसल, तब आता है जब नावरिया के लिए भारती ने केवल और केवल प्रशंसा के बोल ही चुने हैं, किसी भी तरह से उनकी आलोचना नहीं की है, बल्कि भारती ने सांभरिया को छोड़कर जिस किसी की भी चर्चा की है उसमें नकारात्मक टिप्पणी नहीं रोपी है। सो, सांभरिया का बिफरना स्वाभाविक है। बिफरने की वजहें कुछ और भी हैं।

तुलना बेमानी है, लेकिन करनी ही पड़े तो मेरे जानते, अजय नावरिया के कलावाद से लम्बी, आगे की लकीर खींचते नजर आते हैं वानखेड़े। यह भी कि वाल्मीकि के बाद यदि दलित कहानी में कलावाद के निवेश और वैशिष्ट्य की स्पष्ट अथवा डिस्टिंक्ट उपस्थिति मिलती है तो वह वानखेड़े के यहाँ। इसलिए, वाल्मीकि के बाद नावरिया में दलित कहानी के नए युग आदाता के बतौर देखने की भारती की पैरवी मुझे आश्वस्त नहीं करती।

पुनः सांभरिया प्रकरण के समीप लौटें तो अब लेखन के प्रारंभिक दिनों में दलित साहित्यकार कहलाने से बचने अथवा दलित साहित्य से विरोध/परहेज रखने अथवा उससे अपने को काटने की सांभरिया की सायास कोशिश दिख रही है, मग़र, इसे साबित करने में कोई सवा पेज में पसरे पांच बड़े बड़े उद्धरण खर्च कर डालने का क्या औचित्य था जब लेख ‘दलित कहानी के विकास पर कुछ नोट्स’ के रूप में है न कि किसी व्यक्ति विशेष की खिंचाई पर नोट्स? अब छह पृष्ठों के आलेख में अगुआ कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की चर्चा में एक पृष्ठ से थोड़ा अधिक खर्च करने की बात तो समझ में आती भी है मगर, एक से अधिक पेज कागद कारे करने में उस कृतिकार पर खर्चने का क्या मतलब जब उसे अंतिम रूप से हास्यास्पद और कहानी कला में अज्ञानी-फूहड़ ही साबित करना हो? सांभरिया की जिस कहानी ‘चमरवा’ के अंत को भारती हास्यास्पद करार देते हैं उसी कहानी की सोद्देश्यता पर मुहर लगाते हुए प्रमोद मीणा (हंस, मार्च 2020, पृष्ठ 87) यूँ सकारात्मक टिप्पणी करते हैं – “कहानीकार दिखाता है कि अपनी जातीय पहचान से मुंह चुराकर ऊंची जाति के साथ घुलने-मिलने वाले लोग इधर के रहते हैं और ना उधर के।”

होना तो यह चाहिए था कि सांभरिया के व्यक्तित्व एवं रचना की कमियों-कमजोरियों को चिन्हित करते हुए उनके व्यक्तित्व और रचना के विकास को भारती सामने लाते जिससे सांभरिया का एक ठोस आलोचनात्मक मूल्यांकन सामने आता। यहाँ तो उनका कोई ठोस व्यक्तित्व एवं रचनात्मक अवदान ही स्थिर नहीं किया गया है, कुल मिलाकर दोनों मोर्चों पर उन्हें ढहाया ही गया है। आलेख में एकमात्र सांभरिया को ही आक्रमण के लिए चुना गया है। हाँ, यहाँ सांभरिया की शिकायत का एक हिस्सा अप्रासंगिक-अनुचित अथवा मिसफ़िट बैठता है वह यह कि उनकी रचनाओं पर लंबे समय से अनेक विश्वविद्यालयों में एमफिल-पीएचडी शोध हो रहे हैं, उनकी रचनाएँ वहाँ पाठ्यक्रमों में लगी हैं इसलिए उन्हें वरिष्ठ और महत्वपूर्ण लेखक समझा जाए। यह अतार्किक है। वरिष्ठता की गिनती के लिए रचना के प्रकाशन का काल कंसीडर होगा न कि रचनाकार की उम्र। भारतीय मूल के अंग्रेजी लेखक नीरद सी चौधरी ने तो लगभग 50 की उम्र में लिखना ही शुरू किया था। जाहिर है, उनके कितने ही हमउम्र उनसे पहले की पीढ़ी के लेखक रहे। फिर, विपुल मात्रा में और मंचों से छपना आवश्यक रूप से उम्दा लेखक होना नहीं है।

आलेख कुछ अन्य गम्भीर विसंगतियों अथवा कमियों का भी शिकार है। आज के समय के सबसे सशक्त दलित कथाकार कैलाश वानखेड़े (राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान प्राप्त) का केवल नाम गिना कर आलोचक भारती आगे बढ़ गए हैं, उनपर कुछ नोट्स नहीं लिए हैं, यह आलेख की भारी कमी है। दो कहानी संग्रहों ‘सत्यापन’ एवं ‘सुलगन’ के कथाकार वानखेड़े ने अपनी कहानी कला का लोहा मनवाया है और अबतक के सबसे वजनी ‘कलावादी’ दलित कहानीकार ठहरते हैं। इसी तरह, सबसे दमदार दलित स्त्री कथाकार सुशीला टाकभौरे की मात्र एक कहानी का जिक्र करने के चलते भी यह आलेख हलका हो जाता है। टाकभौरे के कथा-व्यक्तित्व पर तो करीने से कोई बात आई ही नहीं है। मात्रा के हिसाब से प्रभूत कथा लेखन (6 उपन्यास, 12 कहानी संग्रह) करने वाले 1965 में जनमे बिहारी कथाकार विपिन बिहारी और ‘लटकी हुई शर्त’ फेम के दो संग्रहों वाले कथाकार प्रह्लाद चन्द्र दास को भी केवल उंगली पर गिन लिए जाने सरीखे उल्लेख को पाकर भी लेख की विश्वसनीयता डिगती है। उधर, पटना में रहने वाले बुद्धशरण हंस के कथा विषयक योगदान को पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए थी। ‘सुअरदान’ उपन्यास से चर्चित और ‘जहरीली जड़ें’ कहानी संग्रह के कथाकार रूपनारायण सोनकर का भी नामोल्लेख कर काम चला लेना बेईमानी कही जाएगी। मैं तो ‘सत्यनारायण कथा’ कहानी संग्रह वाले और मुख्यधारा की कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहने वाले बुजुर्ग कथाकार देवनारायण पासवान ‘देव’ का भी नाम आलेख में खोज रहा था!

आलेख में तथ्यों की अन्य अनदेखी न करने लायक गड़बड़ियां भी हैं। भारती 1980 के दशक से दलित कहानी की शुरुआत मानते हैं जबकि बुद्धशरण हंस का कहानी संग्रह ‘देव साक्षी है’ 1978 में ही प्रकाशित है जो सम्भवतः किसी हिंदी दलित साहित्यकार का प्रथम कथा संग्रह है। दयानाथ बटोही की कहानी और भी काफ़ी पहले सन साठ के दशक में ही छपनी शुरू होती है। वे उन दिनों की मशहूर पत्रिका सारिका और धर्मयुग में भी सन अस्सी से पहले ही छपे थे। बटोही जी की पहली कहानी इलाहाबाद से निकलने वाली ‘आश्रम संदेश’ में सन 1962 में आई थी। इस लेखे गोया, वे भारत के सबसे पहले प्रकाशित होने वाले हिंदी दलित कथाकार भी ठहरते हैं।

वरिष्ठ कथाकार कावेरी (दयानाथ बटोही की जीवनसंगिनी) और युवा कथाकार पूनम तुसामड़, जिनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित है, के भी नाम आलेख में नहीं गिनाए गए हैं जबकि कावेरी प्रथम पीढ़ी की दलित कथाकार हैं, उनका ‘रमिया’ नामक उपन्यास किसी स्त्री द्वारा लिखा गया पहला हिंदी दलित उपन्यास ठहरता है। उनके कहानी संग्रह और उपन्यास भी प्रकाशित हैं। तुसामड़ की कहानी ‘ठोकर’ विशेषांक में ली भी गयी है।

मेरे ख्याल से, यदि कथाकारों के रचनात्मक अवदान का एक खाका खींच कर काम किया गया होता और उनके जिक्र में कोई समानुपातिक स्पेस खर्च करने का श्रम किया जाता तो काम संतुलित, बेहतर और बड़ा होता। कदाचित यह हड़बड़ी में लिखा गया आलेख है।

अब विशेषांकों के संपादन एवं अंतर्निहित इतर सामग्रियों पर बात।

हंस सरीखा नीर-क्षीर विवेचन करें तो विशेषांक एवं संपादन की कुछ सीमाएँ सहज ही दृष्टिगोचर होती हैं तो कुछ कमियाँ नज़दीक जाकर देखने पर।

हालांकि संपादक की अपनी सीमाएँ होती हैं। लेखकों से रचना आमंत्रण और निर्दिष्ट समय में प्राप्ति की भी अपनी तरह की मुश्किलें और पेंच हैं, तथापि यह स्पष्टतः लक्षित है कि इन दोनों विशेषांकों में न तो कोई नाटक/एकांकी, यात्रा वृत्तांत, डायरी, साक्षात्कार, रिपोर्ताज, जैसी विधाओं को प्रतिनिधित्व मिल पाया है न उनपर किसी समीक्षा को।
मराठी दलित आत्मकथा पर तो एक स्वतंत्र परिचयात्मक आलेख ही है, यह महत्वपूर्ण है। मगर हिंदी दलित आत्मकथा पर भी कोई आलेख नहीं ही है। दलित कविता को लेकर भी कोई विमर्शात्मक/समीक्षात्मक आलेख नहीं है। यह चौंकाता है। यह भारी सीमा है विशेषांक की। दलित सौंदर्यशास्त्र को लेकर भी कोई आलेख की दरकार थी, खलती है यह कमी।

विषय सूची में आलग से चिन्हित कर संस्मरण तो नहीं हैं, मग़र, ‘बहिष्कृत भारत’ जैसे मानीखेज़ स्तंभ के अंतर्गत ये उपस्थित हैं। डी. डी. बंसल का संस्मरण (दिसम्बर अंक) लघुगात में है, लेकिन है बेजोड़। संस्मरण का शीर्षक ‘वसुधैव कुटुबकम के उदारमना लोग’ जैसे इस आत्मबयानी की बुलंद इमारत का पता देता है। इसी अंक के इसी स्तम्भ में उम्मेद गठवाल का ‘संघर्ष ही धर्म’ नामक संस्मरण दैहिक बीमारी, जाति बीमारी और बीमार समाज पर एक व्यक्ति के अनुभव एवं नजरिये के हवाले से की गई एक अद्भुत प्रस्तुति है। इसका प्रांजल-प्रवाहमय गद्य गौतम सान्याल के गद्य-कौशल की याद कराता है।

हिंदी में ग़ज़ल लिखना अभी वायरल फ़ैशन की तरह है! इस विधा की कुछ कविताओं के जरिये नुमाइंदगी होना अच्छी बात है। जबकि विश्वविद्लाय में दलित विषय से शोध, शोध की स्थिति व राजनीति, पाठ्यक्रम की स्थिति,
दलित साहित्य में सवर्ण उपस्थिति/हस्तक्षेप,
दलित साहित्यकारों का आपसी वर्णवाद/क्षेत्रवाद और सिरफुटौव्वल जैसे विषयों पर भी सामग्रियाँ सम्मिलित होतीं तो सोने में सुगंध होता।

कहानी की बात करें तो नवम्बर अंक में जहाँ आठ कहानियाँ रखी गयी हैं वहीं दिसम्बर अंक में सात। नवम्बर अंक की आठों कहानियाँ जहाँ शिल्प और कला के हिसाब से औसत हैं वहीं दिसम्बर अंक की कैलाश वानखेड़े की ‘चाबी’ उत्कृष्ट है। इसी अंक की मलयालम से अनुदित ‘पैंथर का शिकार’ नामक बेहद छोटी गात की कहानी अपने ट्रीटमेंट एवं प्रभाव में बेजोड़ है। चूंकि यह अनुवाद में है अतः मूल कथा के सुगढ़ कला-शिल्प में होने का अनुमान भर किया जा सकता है।

राजेन्द्र यादव द्वारा स्थापित हंस ख़ास, दलित एवं स्त्री विमर्श को खड़ा करने के लिए जाना जाता है। अतिथि संपादक अजय नावरिया ने दलित स्त्री विमर्श को अच्छी जगह दी है, इससे दलित साहित्य के अंदर के लोकतंत्र को इस मंच से बल मिला है।

और, अपनी टिप्पणी का अंत दोनों विशेष अंकों के अतिथि संपादकीय से करें तो हंस के पाठकों को अगर इन विशेषांकों से ज्यादा कुछ पढ़ने का मौका न भी हो तो कम से कम इनके संपादकीय जरूर पढ़ लें। बल्कि, दूसरे अंक का संपादकीय तो जरूर ही। इस संपादकीय की तो बिहार-ओर और इसके गिर्द भी भारी चर्चा है। इसमें राजेन्द्र यादव की लेखनी (संपादकीय) का अक्स है, जबकि अनुस्यूत विचार भरसक मौलिक हैं, मौजूँ हैं। संपादकीय के इस सुनियोजित विचार सरणी के जरिये नावरिया का अपने समय-समाज की चिंता, परख और अध्ययन के फ़लक का पता चलता है।
*************

लेखक :
मुसाफ़िर बैठा, प्रकाशन विभाग, बिहार विधान परिषद्, पटना, मोबाइल 7903360047)

Language: Hindi
Tag: लेख
237 Views
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