सज़ा-ए-मुहब्बत
देने को तो दे दूँ ,
सज़ा हर ज़ुल्म की जो तू मुझ पे करता है।
अदालत भी अपनी ,गवाह भी अपने ,
पर इस दिल का क्या करूँ………
जो वकालत तेरी करता है।ज
बड़ा बेचैन रहता है
ना कुछ ,मुझसे ये कहता है ।
ना है सुद में ये अब खुद की ,
खुद में ख़ोया सा रहता है ।
मुझे शक है ,इस दिल पर
ये क्यों खामोश रहता है ।
जो सुनता था कभी मेरी ,
ना अब मेरे पास रहता है ।
तेरे ख्वाबों,ख्यालों में , डूबा रहे हरदम
तेरे हर जुल्म-सितम को , ये चुपचाप सहता है।
:-सैयय्द आकिब ज़मील