स्वार्थी मनुष्य (लंबी कविता)
मानव ने पूरी धरती पर ,
आधिपत्य है जमा लिया ।
पूरी पृथ्वी पर मानव ने ,
बस अपना घर बना लिया ।।
यद्यपि ईश्वर ने मानव के –
साथ और भी भेजे थे ।
पशु, पक्षी , पेड़ व पौधे ,
ईश्वर ने सभी सहेजे थे। ।
निर्माता ने सोचा होगा ,
अद्भुत रचना की है मैंने ।
अपनी सारी रचनाओं को ,
कुछ खास चीज दी है मैंने ।।
प्रभु ने मृग को कस्तूरी दी ,
सुन्दर पंखों से मोर सजा ।
तोते को लाल चोंच दे दी ,
सिंह क्रोध में फिर गरज़ा। ।
कोयल की वाणी बहुत मधुर ,
कुत्ते को मिली वफादारी ।
बस मानव को बुद्धि दे दी ,
ये सब गुण पर सबसे भारी ।।
ईश्वर ने सब निर्माण बाद ,
पृथ्वी पर सबको पहुंचाया ।
निर्माता अपनी कृतियों से ,
मन ही मन में इतराया। ।
निश्चिंत हुए जब ब्रह्मा जी ,
नव रचनायें लाने को ।
शांति पूर्ण एकांतवास में,
लग गए ध्यान लगाने को ।।
ईश्वर ने लाखों बर्षों तक ,
अपना ध्यान नहीं खोला ।
कर पूर्ण साधना परमेश्वर ने ,
सर्वप्रथम बस यह बोला। ।
” देखूँ मैं जाकर पृथ्वी पर ,
मेरी संतानें कैसी हैं ?
भेजी सब गुण से परिपूर्ण ,
क्या अब तक वे सब वैसी हैं ??”
चलने लगे ईश पृथ्वी पर ,
मन में था संतोष बहुत ।
सब रचनाओं में तालमेल के
दृश्य हेतु था जोश बहुत ।।
सोचा पशु, पक्षी व मानव ,
एक साथ खाते होंगे ।
कोयल और मनुष्य साथ में
मेरे गुण गाते होंगे ।।
वृक्षों और मनुष्यों में जब ,
भाईचारा देखूँगा।
आज सहस्रवर्षोपरांत मैं ,
जग ये सारा देखूँगा। ।
पहुँचे जब जंगल में ब्रह्मा ,
देखा वहाँ शोर अत्यंत ।
हिरण तीर से घायल होकर ,
तडपा बहुत हुआ प्राणांत ।।
थोड़े से वे दुखी हुए पर ,
आगे बढ़ने लगे तभी ।
दृश्य प्रभु ने ऐसा देखा ,
जैसा देखा नहीं कभी ।।
सिंह , व्याघ्र , मृग , भालू , हाथी ,
क्लांत हो रहे चारों ओर ।
बिज़ली के गर्जन के समान ,
वहां हो रहा पल पल शोर ।।
बंदूक चलाई हाथी पर ,
तो हाथी हुआ धराशायी ।
पशुओं के क्रंदन को सुनकर ,
आँख ईश की भर आई ।।
प्रभु ने सोचा कुछ कुछ बालक ,
बड़े अधर्मी होते हैं ।
किन्तु कई ऐसे भी हैं जो
बीज़ धर्म के बोते हैं ।।
पहुँचे प्रभु समुद्र किनारे ,
देखा वहाँ तैरता जाल ।
मछली उसमें फंसा फंसाकर ,
मानव खींच रहा तत्काल ।।
चलते चलते आगे पहुँचे ,
देखा वहाँ घिनौना काम ।
बकरी , मुर्गे , कुत्ते , सूअर ,
मानव काट रहा अविराम ।।
पेड़ काट डाले मानव ने ,
छीन लिया सबका आवास ।
काट काटकर पशुओं को , वो
बड़े चाव से खाता मांस ।।
क्लांत हो गया ईश्वर का मन,
अंधकारमय लगती राह ।
” क्यों मैंने भेजा मानव को !”
भरी प्रभु ने मन में आह ।।
” मेरी इस सुन्दर सृष्टि को ,
मानव ने बर्बाद किया ।
मैंने मानव रचना करके ,
बहुत बड़ा अपराध किया ।।
” मानव ने पूरी धरती पर
आधिपत्य है जमा लिया।
पूरी पृथ्वी पर मानव ने ,
बस अपना घर बना लिया ।।
” पशु , पक्षी , पेड़ और पौधे ,
सबको मानव मार रहा ।
मेरी इस रचना करने का ,
सारा श्रम बेकार रहा ।।”
क्रोध भरा ब्रह्मा के मन में,
बोले , ” मानव रोयेगा ।
स्वास्थ्य , प्रकृति व जीवनशक्ति ,
को ये मानव खोयेगा। ।
धरा संतुलन बिगड़ जायेगा,
तब बीमारी ढोयेगा ।
वैसा ही काटेगा ,
जैसा भी बीज़ यहां पर बोयेगा ।।
पानी, भोजन बिना अरे क्या ,
पल भर भी रह पाएगा ।
तब कर्मों को सोच सोचकर ,
ये मनुष्य पछतायेगा ।।
इस धरती के तंत्र हेतु ,
केवल मानव ही मुख्य नहीं ,
पशु , वृक्ष ,वायु व नदियां ,
आवश्यक हैं यहां सभी ”।।
उसी क्रोध से , उन्हीं कर्म से,
मानव दण्डित होता है ।
प्रकृति का प्रकोप मनुज पर ,
अधिक प्रचण्डित होता है ।।
भोग रहा है कर्मों का फल ,
असमय वर्षा व तूफान ।
चक्रवात , पृथ्वी का कंपन ,
अरे ! सुधर जा ओ इंसान ।।
महा प्रलय केदारनाथ की,
तेरे कर्मों का कारण ,
घोले वायु , जल में विष तू ,
स्वार्थ पूर्ण सब उच्चारण ।।
ऐसी बीमारी हैं जिनका ,
नहीं कोई तुझ पर उपचार ।
औषधियाँ सारी हैं उनके –
आगे बिल्कुल बेकार ।।
शुरू हुई है अभी प्रलय तो,
देखो आगे प्रकृति के खेल ।
जो तूने बाँटा है सबको,
उसको वापिस तू ही झेल ।।
वक़्त नहीं है बचा मगर ,
तू थोड़ी कोशिश करे अगर
हो सकता है सरल हो सके ,
कठिन हो गयी है जो डगर ।।
क्षमा मांग लो प्रकृति से
हो जाएँ शायद क्षमा अभी ।
यदि अभी नहीं सोचा तुमने,
तो फिर तो आगे कभी नहीं ।।
सर्वशक्तिमान ना समझो,
हाँ तुम सबसे ताकतवर ।
हाथी को भी मार डालती,
छोटी सी वो चींटी मगर ।।
वृक्ष काटकर गुनाह किया है ,
वृक्ष रोप कर प्रायश्चित ।
प्रकृति की सन्तान सभी ,
ये माफ़ करेगी तुमको निश्चित। ।
खाने को जो निर्धारित है ,
उसे बनाओ अपना भोग ।
जानवरों को खाकर के
तुम नहीं लगाओ कोई रोग ।।
जिस प्रकार तुम मांग रहे हो ,
ईश्वर से जीवन की भीख ।
उसी तरह से जानवरों की
भी तो निकला करती चीख ।।
प्रकृति के सारे घटकों को
मित्र बना लो अगर सभी ।
तो ये भूख और रोगों से
मरने देगी नहीं कभी ।।
पहल करो तो अभी करो ,
ये वक़्त कभी ना आएगा ।
आगे तो फिर सिर्फ हृदय में ,
पछतावा रह जायेगा ।।
— सूर्या