स्वाधीनता संग्राम
3. स्वाधीनता संग्राम
दिग् दिगंत दप दप दमकती तलवार थी,
चपला चमकती चपल चमकार थी ।
तूफानों के वेग से प्रचंडती प्रहार थी,
भारती भवानी की विकट ललकार थी ।।
गंग की अनंग धार अंग अंग काटती ,
रिपु को विखंड कर मुंड मुंड पाटती ।
अस्त्र शस्त्र वस्त्र जैसे भूत न भविष्य में,
भूत को भविष्य के प्रहार से प्रखारती ।।
आन बान शान के निशान नहीं मिटते ,
काल के कराल भाल जहाँ नहीं टिकते ।
सिंह के निनाद से विषाद काट काट के,
बैरियों के वंश जहाँ ध्वंस से सिमटते || ,
शत्रुओं के बीच हर हर हहरा गई,
हर हर महादेव घोष घहरा गई ।
रुंड मुंड झुंड सुंड सुंड काट काट के,
कालिका की जीभ रक्तबीज को हरा गई ।।
अग्नि से विशाल विकराल ज्वाल लाल थे ,
भारती के भाल की मिसाल बाल पाल थे ।
भृकुटी तनी तो साक्षात् महाकाल थे ,
हिन्द के ये लाल देश प्रेम की मिसाल थे ।।
लाल लाल लहू की पुकार ये पुकारती,
सीने में धधक रही ज्वाला जयकारती ।
युद्ध की विभीषिका के बाद के विकास मे,
गूँज रहा एक जयगान जय भारती ।।
भारती के भाल का तिलक आज कर लो ,
नाड़ियों में खून की झलक आज भर लो ।
देखना जो देश का भविष्य आसमाँ पे हो,
काल के कपाल काट काट के कुचल दो ||
प्रकाश चंद्र, लखनऊ
IRPS (Retd)