सतर्क जनता ही लोकतंत्र का कवच
आदिकाल में मनुष्य अकेला जानवरों की भांति विचरण करता था। इस अवस्था में उसे खाने , पीने , रहने और भावनात्मक दिक्कतें बहुत आती थी जिसके लिए मनुष्य ने समाज का विकास किया। इस सामाजिक विकास से मनुष्य ने सभी काम मिलकर करना शुरू किया और जो मिलभूत समस्याएं थी वो लगभग समाप्त होने लगी।
मूलभूत समस्याओं के बाद मनुष्य और समाज के सामने राजनीतिक समस्या आयी अर्थात किस तरह से समाज के लोगो को व्यवस्थित किया जाय और किस प्रकार के नियम बनाए जाय जिससे समाज में बगैर विरोध के और अन्याय के सभी को उनका हक मिल सके और शांति बनी रहे किन्तु इस व्यवस्था में मुख्य समस्या आयी कि समाज के वर्चस्वशाली अर्थात नेता/राजा लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार सामाजिक नियम बना दिए जिनमें स्वयं को और उनके ख़ास लोगों को विशेषाधिकार दिए और बाकी के समाज को उनके मूलभूत अधिकारों से ही वंचित कर दिया जैसे खाना, पीना, घर , आस्था-कर्मकांड, बोलने, घूमने, रिस्ते बनाने, शिक्षा,रोजगार आदि सभी आजादी को सीमित कर दिया। जिसका मुख्य कारण कि समाज जितना जागरूक होगा उनके विशेषाधिकारो पर जनता चोट करेगी और उनके वर्चस्व को चुनोती मिलेगी और सत्ता ज्यादा दिन नही टिक पाएगी। और समाज के साथ ऐसा व्यवहार करने में साथ दिया धार्मिक नेताओं ने जिन्होंने राजा से साठ गाँठ कर स्वयं को भी उन्ही विशेषाधिकारों में शामिल कर लिया जिसके बदले में इन धार्मिक नेताओं ने समाज के सामने राजा को देवता का पुत्र और समाज का देवता ही बना दिया जिसका परिणाम यह निकला कि समाज ने बिना किसी विरोध के ही राजा और धार्मिक नेताओं के विशेषाधिकारों के स्वीकार कर लिया। समाज की यह राजनीतिक स्थिति प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक चलती रही और समाज का आम नागरिक इन शताब्दियों तक शोषित ही होता रहा।
जब औद्योगिक विकास हुआ तो समाज की प्रचलित व्यवस्था टूटने लगी और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग और जन सामान्य के अतिरिक्त समाज में एक नया वर्ग उतपन्न हुआ जो मध्यवर्ग कहलाया।वास्तव में यह वर्ग ना तो राजा- धार्मिक नेताओं था और ना ही कृषक। यह उद्योगपति और व्यापारी वर्ग था जिसने अपने व्यावसायिक लाभ का कुछ हिस्सा राजा को भी दिया जिससे राजा इस वर्ग से बंध गया और अब राजा को भी इस वर्ग के हितों के बारे में सोचना पड़ा, जिससे धर्म और धार्मिक नेता किनारे होने लगे साथ ही इसी मध्य वर्ग ने निम्न वर्ग को भी अपने व्यवसाय में रोजगार देकर जागरूक किया जिससे निम्न वर्ग भी अब राजा और धार्मिक नेताओ के विशेषाधिकारो को चुनौती देने लगा और अपने लिए भी मुलभुत अधिकारों के साथ साथ प्रशाशन में भागीदारी मांगने लगा।
इसी सामाजिक कलह के कारण नई नई प्रकार की राजनितिक व्यवस्थाएं आने लगी जिनमें लोकतंत्र, गणतंत्र,कम्युनिज़्म,समाजवाद इत्यादि राजनितिक विचार प्रमुख थे। इन सभी राजनितिक विचारों में लोकतंत्र विचार ने आधुनिक समाज में प्रमुखता से स्थान प्राप्त किया और विस्व के कुछ देशों को छोड़कर लगभग सभी देशों ने इसी राजनितिक व्यवस्था को अपनाया है और वर्तमान विस्व में यह प्रायोगिक भी सिद्ध हो रहा है।
इस राजनितिक विचार लोकतंत्र की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें देश का नागरिक ही प्रमुख होता है और नागरिक ही अपने नागरिक अधिकारों का प्रयोग कर एक सरकार का चुनाव निश्चित समय के लिए करता है । इसका सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि जनता ही प्रत्यक्ष रूप से देश के शाशन प्रशासन में जिम्मेवार होती है , अपना नेतृत्व चुनकर।अगर नेतृत्व गलत करता है तो भी एक प्रकार से जनता ही जिम्मेवार है क्योंकि एक बार चुनने का अर्थ यह नही होता कि जनता की पकड़ ठीली हो गयी बल्कि जनता सरकार की प्रत्येक कार्यवाही पर प्रतिक्रिया करने के लिए स्वतंत्र है।
एक स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि जनता, सरकार के शाशन प्रशासन में स्वयं को अपने स्तर से बगैर स्वार्थ के प्रतिक्रिया देनी चाहिए ,जिससे सरकार भी सतर्क रहती है देश से जुड़ा किसी भी प्रकार का निर्णय लेने के लिए।वास्तव में लोकतंत्र जनता के लिए सबसे बेस्ट राजनितिक व्यवस्था है क्योकि जनता को अधिकार है कि वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सरकार पर नियंत्रण रखें ।
कि न्तु लोकतान्त्रिक व्यवस्था में देखा गया है कि जनता अपने स्वार्थ कारण दल गत भक्ति के कारण नेता को या सरकार को अपनी शक्ति को पूर्ण रूप से हस्तांतरित कर देती है और नेता इसका लाभ उठाकर सबसे पहले स्वयं को सुरक्षित कर जनता के ऊपर ही जनता के टैक्स को ही हड़पता है और आम जनता को थोड़ा बहुत लाभ देकर उसके मुँह को भी बंद कर देता है जिससे लोकतंत्र की आत्मा का धीरे धीरे छरण होता जाता है और लोकतंत्र चुने हुए राजतंत्र में परिवर्तित होने लगता है।
इसका खमियाजा भी जनता को ही उठाना पड़ता है कि ऐसे ऐसे नियम बना दिए जाते है जिससे जनता की स्वतंत्रता तो बाधित होती है साथ ही उसके संवैधानिक अधिकार भी बाधित हो जाते है और आम नागरिक सरकार के सामने एक याचक बन कर रह जाता है जो उससे रहम की भीख मांगता है।
इसलिए स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि जनता भी निस्वार्थ और बगैर किसी पार्टी झुकाव के सरकार या नेता के कामों को परखे और प्रश्न करे अन्यथा इस लोकतंत्र एक चुने हुए राजतंत्र में परिवर्तित हो जाता है जिसमे सरकार और बड़े बड़े सरकारी अधिकारी उसी प्राचीन और मध्यकालीन विशेसाधिकार वर्ग में शामिल होकर एकजुट होकर सामूहिक रूप से जनता का शोषण करते रहते है और आम जनता को योजनाओं का लालच देकर उनके मुलभुत अधिकारों से भी बंचित रखते है।