स्वर्ण भी सम घास
हे प्रभो तेरे चरण के, हम सभी हैं दास।
एक तेरा ही सहारा, बस तुम्हीं से आस।
है समय का चक्र कब, किसका बदल दे भाग्य,
भूख, लाचारी, गरीबी का न कर उपहास।
बिन परिश्रम की सफलता, है नहीं आसान,
एक दिन होगे सफल, करते रहो अभ्यास।
भूख दौलत की कभी, होती नहीं है क्षीण,
है अगर संतोष मन में, स्वर्ण भी सम घास।
कर्म, कर्ता, और कारक, राम प्रभु हैं मूल,
हैं वही मालिक सभी का, रख जरा विश्वास।
व्यर्थ मत आँसू गिरा, करना न पश्चाताप,
प्रेम करना सीख ले, जो है तुम्हारे पास।
सब यहीं पर छोड़कर, जाना पड़ेगा ‘सूर्य’,
साथ में तेरे नहीं, होंगे तुम्हारे खास।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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