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22 Dec 2023 · 16 min read

कविता

[05/12, 09:17] Dr.Ram Bali Mishra: जिंदा आदमी

कुछ कुछ होता,दिल जिंदा है।
मोहक धरती,प्रिय चंदा है।।

आसमान में,होय बसेरा।
आजीवन हो,मधुर सबेरा।।

तोड़ न देना,मधु का प्याला।
पीते रहना,मादक हाला।।

तुम सुहाग हो,अमृत धारा।
सर्व व्योम के,मोहक तारा।।

अति चमकीला,हृदय हीर हो।
भावोत्पादक,राहगीर हो।।

तुझे देख कर,लगन लगी है।
चिर निद्रा से,वृत्ति जगी है।।

तुम्हीं धड़कते,दिलदानी हो।
प्रेम जगाते,मधु ज्ञानी हो।

कुछ तो कह दो,पागलपन है।
यौवन घायल,वामन मन है।।

तेरी बोली,का य़ह कायल।
बिना तुम्हारे,उर है घायल।।

तेरी आहट,जादूगर है।
स्नेहोत्पादक,मोहक घर है।।

सब कुछ मिलता,जब तुम होते।
बिना कृपा के,सब कुछ खोते।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[05/12, 11:18] Dr.Ram Bali Mishra: प्रेम धारा
सारिका छंद (वार्णिक-6, 6,6,8पर यति, अंत के 8 वर्ण लघु)

तुम प्रेमाधारा,शुभ ग्रह सारा,अति प्रिय न्यारा,प्रिय सरल सुखद।
ताकत उत्तम,साध्य महत्तम,वैभव भव्यम,सुघर मधुर कद।।

एकांत सुहाना,मनोहर ध्याना,विशुद्ध तराना,शुभ गति मकसद।
यह वृक्ष शुची,विधि ने है रची,पावन सुरुची,शिवमय वरगद।।

पावन दर्शन,कोमल स्पर्शन,अद्भुत अर्जन,हितकर प्रियवर।
जो य़ह जानत, फल को चाखत,है रस पावत,बनकर मधुकर।।

हो कर याचक,मौन सुभाषक,भाव विनायक,पुलकित मन तल।
होता उत्साहित,प्रीति प्रवाहित,अति रोमांचित,रग रग सुविमल।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[05/12, 16:48] Dr.Ram Bali Mishra: प्रीति ध्यान मग्न है
मात्रा भार 11/12

प्रीति ध्यान मग्न है,अजेय मर्म वाहिनी।
प्रेम दूत सी दिखे,अतीत आदि शालिनी।।

टूटती कभी नहीं,असीम धैर्य धारिणी।
जीवनी बनी हुई ,शुभेच्छु सिन्धु तारिणी।।

दामिनी बनी हुई, चमक दमक दिखा रही।
काव्य को कवित्त में,पिरो पिरो सिखा रही।।

धन्य प्रीति माधुरी,बनी रहो अनामिका।
दुर्ग शैल शीतला,अजीत तेज कालिका।।

वर्णनी अवर्णनी,विराट रूप वंदिता।
मोहनीय भव्यता,पुराण नव्य नंदिता।।

हृष्ट पुष्ट मात्रिका,सुमंगली सरोवरी।
वंदनीय प्रीतिका,प्रसन्न भव धरोहरी।।

पैठ अंग अंग में,उकेरती सुवाच्य को।
पा रहा समस्त जग,अमूल्य भोग्य पाच्य को।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[06/12, 18:04] Dr.Ram Bali Mishra: खाली मन (मरहठा छंद )
मापनी: 10/8/11

है खाली मन में,बैठा रहता,अजब गजब शैतान।
नित करता रहत,गंदी हरकत,भरा हुआ अभिमान।।

सब के प्रति रखता,हरदम नफरत,होता नहीं महान।
वह सबको झूठा,समझा करता,खुद को सत्य निधान।।

वह कदम कदम पर,कांटे बोता,करता नित्य विवाद।
नित टेढ़ा बोले,जहर उडेले,नहीं मधुर संवाद।।

सब के प्रति ईर्ष्या,द्वेष भरा है,अनुचित हर व्यवहार।
वह खुराफात का,मंत्र जाप कर,करता अत्याचार।।

वह मानवता को,नहीं जानता,कभी न दिल में स्नेह।
वह अपने को ही,बड़ा मानता,अतिशय दूषित गेह।।

जिसका मन खाली,वह वैताली,कभी न उत्तम भाव।
वह सदा दुराग्रह,करता डटकर,मोहक नहीं स्वभाव।।

मन खाली मत कर,मधुर भाव भर,मन में शुद्ध विचार।
मनमोहक बनना,उत्तम दिखना,करना सबसे प्यार।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[06/12, 18:31] Dr.Ram Bali Mishra: प्यार प्रिय अहसास है

प्यार के बादल घुमड़ते जा रहे,वृष्टि होगी किस जगह?किसको पता??

जब मिलन होता हृदय से प्यार का।
दीख जाता प्रिय चमन है यार का।।

प्यार को गंगा समझ कर स्नान हो।
जो इसे गंदा करे शैतान हो।।

प्यार सात्विक शब्द का मधु भाव है।
ईश का वरदान सुरभित छांव है।।

यह परम विश्वास का शुभ कर्म है।
प्यार को स्वीकार करना धर्म है।।

पत्थरों से मार खा कर भी न टूटे।
प्यार है भगवान जो हरगिज न छूटे।।

मारना निज प्यार को अति पाप है।
काटता निर्दोष को अभिशाप है।।

प्यार राधा का बहुत अनमोल है।
कृष्ण का अंदाज अमृत घोल है।।

मारता जो प्यार को वह बेवफ़ा।
प्यार को दिल से लगाता है वफ़ा।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[07/12, 11:15] Dr.Ram Bali Mishra: भक्त की याचना (दोधक छंद )
11 वर्ण
3 भगण और अंत में दो गुरु

याचक भक्त खड़ा रहता है।
मांगत प्रेम सदा दिखता है।
पैर पड़े कर जोड़त नागा।
दे वरदान असीमित रागा।

देखत द्वार खड़ा य़ह बोले।
प्रेम सुधा रस अमृत घोले।
चूमत पांव पखारत बाबा।
पूरण होय सदा प्रिय ख्वाबा।

आदत से मजबूर सुजाती।
तू वट वृक्ष यही शिख पाती।
आशिष दे हर संभव पीड़ा।
भक्त करे नित स्नेहिल क्रीड़ा।

युद्ध चले मधु प्रेमिल सारा।
भक्त बने प्रिय अमृत धारा।
चेतन मानस प्रीति जगेगी।
देह थकान समस्त मिटेगी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[07/12, 13:49] Dr.Ram Bali Mishra: नेता (दोधक छंद)

हारत हांफत रोवत नेता।
जीतत गावत नाचत नेता।
मारत तीर चलावत नेता।
जीतत हारत आवत नेता।

चाल चले मुँह पीटत नेता।
ढोल मजीर बजावत नेता।
हार नहीं वह मानत नेता।
आस लगाय बढ़े हर नेता।

निर्दल एकल वादल नेता।
प्राण चुनाव दुखावत नेता।
दौड़त कूदत भागत नेता।
जागत रात दिवा हर नेता।

काटत जाल बिछावत नेता।
चाहत है वह होय चहेता। हार गया तब होय अचेता।
झूम उठा जब होय विजेता।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[08/12, 15:35] Dr.Ram Bali Mishra: प्रीति (दोधक छंद)
वर्णिक छंद,11 वर्ण

प्रीति नहीं बकवास करे रे।
हार्दिक मादक भाव भरे रे।
उत्तम कोटि मनुष्य यही है।
पावन सुन्दर भव्य यही है।

प्रीति सकारत मोहक गाना।
शुद्ध विचार अलौकिक बाना।
रूप सुहावन भावन साधे।
कॄष्ण महान मना प्रिय राधे।

दृष्टि अपार अनंत लुभानी।
प्रीति सुदेश सुशील जवानी।
मापक है यह दिव्य रसीला।
भावुक सौरभ शांत छवीला।

नेति प्रिया मन मंथन माला।
चिंतनशील सरोसिज़ प्याला।
स्वामि सखी भगिनी मधु नारी।
वास सुवास सुगंधित सारी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[08/12, 16:31] Dr.Ram Bali Mishra: वनवास (दोहा छंद/सानेट )

इस सारे संसार में,अभिशापित वनवास।
किन्तु यही वरदान बन,किया राम का नाम।
जहां गये प्रभु राम जी,वही बना प्रिय धाम।
परम अलौकिक तथ्य का,है सबको अहसास।

वनवासी बनना नहीं,कभी लगे दुखभाग।
जिसे लोक कहता गलत,वह परमार्थिक पक्ष।
सुन्दर मोहक कर्म से,लगता सुखद विपक्ष।
संकट मोचक राम वन,पाये सुख का भाग।

जंगल जंगल घूम कर,किये राम उपकार।
जाते यदि वे वन नहीं,पापी बढ़ते नित्य।
मार काट करते सदा,होता सतत कुकृत्य।
वनवासी श्री राम जी,किये असुर संहार।

धर्म स्थापना के लिए,हुआ राम अवतार।
साधु संत अरु यज्ञ का,किये सहज उद्धार।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[09/12, 15:22] Dr.Ram Bali Mishra: प्रेम (इंद्रवज्रा छंद )
वर्णिक छंद,चार चरण,प्रत्येक चरण में 11 वर्ण
2 तगण,1 ज़गण और अंत में 2 गुरु

प्रेमातुरंगीन स्वभाव संता।
आकाश पंथी शिव राह गंता।
सादा सुजाती मधु भाव धर्ता।
साधू अगाधू प्रिय स्नेह कर्ता।

राधानुरागी नम दिव्य कामी।
कान्हा मुरारी भव भव्य नामी।
गोपाल गोपी प्रिय राग गाथा।
आनंद रूपी नित स्तुत्य नाथा।

भाषा अमीरी शुभ सभ्य ज्ञाना।
आशा स्वयं शांत विश्रामखाना।
राजेन्द्र सारे जग का लुभाना।
है प्रेम जादूग़र आशियाना।

संतोष पोषी सम दृष्टि बुद्धा।
माया स्वरूपी विधि सृष्टि शुद्धा।
साकार ब्रह्मा मन मस्त लोका।
पीताम्बरा शोभित सा अशोका।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[09/12, 18:35] Dr.Ram Bali Mishra: भलाई (पंचचामर छंद )
16 वर्ण

भला करो सुखी रहो परार्थ होय भावना।
बुरा कभी न सोचना सदैव शुद्ध कामना।
डरो सदा असत्य से असत्य राग पाप है।
अशुद्ध से असत्य से लड़ा पवित्र चाप है।

भला किया बना महा अधर्म बुद्धि त्यागता।
सदा सुबुद्ध कृत्य ही अजेय अस्त्र मांगता।
परोपकार मूल है इसे सदा सजाइए।
मनुष्य को जगाइए अमर्त्य लोक पाइए।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[10/12, 08:12] Dr.Ram Bali Mishra: राष्ट्रवाद
वर्ण 15

राष्ट्र वाद साध्य नित्य प्राण से सदा बड़ा।
जो इसे महत्व दे वही सदैव है खड़ा।

हानि लाभ का नहीं यहाँ कभी महत्व है।
राष्ट्र ध्यान ज्ञान मान ही सदैव सत्व है।

राष्ट्र जीवनी सदा यही अमोल मूल्य है।
वंदनीय राष्ट्र धर्म रम्य ईश तुल्य है।

राष्ट्र प्रेम जो करे वही दिखे महान है।
राष्ट्र हेतु जो बढ़े वही बड़ा सुजान है।

राष्ट्र के लिए लड़ा सदा सपूत वीर है।
वैरि को मरोड़ता बना अजेय धीर है।

राष्ट्र मंत्र जाप ही सदा पवित्र कृत्य है।
राष्ट्र में रचाबसा मनुष्य नित्य स्तुत्य है।

योग भावना रहे समूह चेतना दिखे।
राष्ट्रवाद संविधान भावना सदा लिखे।

शोक कष्ट से सदैव दूर राष्ट्रवाद हो।
शुद्ध सत्व सत्य न्याय दिव्य राष्ट्र नाद हो।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[10/12, 13:17] Dr.Ram Bali Mishra: सफलता
मात्रा भार 20

सफ़लता मिलेगी कमल दल खिलेगा।
दमकती भुजाएं हृदय मन मिलेगा।
भगेगी विफलता बहुत दूर जा कर।
हँसेगी सफ़लता सहज पास आ कर।

निरंतर करो कर्म धोखा न देना।
रहे कर्म निष्ठा यही मंत्र लेना।
दिखे भाव सुन्दर विमल मानसिकता।
पढ़े पाठ में हम सदा नीतिप्रियता।

क्रियाशून्य मानव न होता सफल है।
उदासीन रहता हमेशा विफल है।
नकारा न जाने श्रमिक की महत्ता।
न पाता कभी जिंदगी में सफ़लता।

सुनिश्चित रहे कर्म साधक बनो रे।
सफ़ल जिंदगी के लिए श्रम करो रे।
करो दृढ़ प्रतिज्ञा चलो कर्म पथ पर।
सफ़लता चलेगी सदा दिव्य रथ पर।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[10/12, 16:08] Dr.Ram Bali Mishra: धोखा (मुक्तक) (उपेंद्र वज्रा छंद )
ज़गण तगण ज़गण दो दीर्घ
11 वर्ण,प्रत्येक चरण,कुल चार चरण
121 221 121 22
ज़भान ताराज जभान गागा

जहां कहीं भी दिखता न धोखा।
वहाँ वहाँ सुन्दर सर्व चोखा।
बुरा सदा है मृत प्राय जानो।
यदा यदा मानव देत धोखा।

सदा सहारा बनता मनीषी।
कभी न धोखा करता मनीषी।
चला करेगा हरता दुखों को।
सुखी बनाता चलता मनीषी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[10/12, 18:35] Dr.Ram Bali Mishra: प्रसन्नता (पंचचामर छंद )

रहे नहीं विपन्नता प्रसन्नता बनी रहे।
मचे नहीं विहागरा सुहागरा बनी रहे।
रचे मनुष्य दिव्यता पराग की बहार हो।
सुधा बने मनुष्यता विचर का सुधार हो।

सजीधजी प्रवीणता कुशाग्र बुद्धि धार हो।
धरा बने महान की मनोनुकूल प्यार हो।
बसंत की बयार का रसा सदैव पीजिए।
सदेह चाँदनी खिले मयूर नृत्य कीजिए।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[11/12, 14:45] Dr.Ram Bali Mishra: कल्याण
मापनी :8/8/6

जिस विधि होगा,नाथ हमारा,कल्याणा।
उसे बताओ,हे परमेश्वर,प्रिय प्राणा।।

तेरा वन्दन,नियमित करता,य़ह जानो।
दूर नहीं मन,पास खड़ा है,पहचानो।।

दूर करो प्रभु,कष्ट हमारा,दुखहारी ।
हे दुख भंजन,करुणानंदन,सुखकरी।।

दीनदयाला,सहज कृपाला,मनरंजन।
नैया लाओ,पार उतारो,हे सज्जन।।

ज़न संरक्षक,उत्तम शिक्षक,हितकारी।
प्राणनाथ तुम,विश्वनाथ हो,भयहारी।।

ज्ञान दान दो,सदा ध्यान दो,परमेश्वर।
शुभ वाचन दो,शिव आसन दो,विश्वेश्वर।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[11/12, 18:12] Dr.Ram Bali Mishra: प्रीति सारिका (रोला छंद)

मीठे मादक बोल,प्रीति सरस मधु सारिका।
मन में मदन निहाल,चित्त वृत्ति अति प्यारिका।।

मद का नित अवसान,प्यारी मैना गा रही।
आम्र शाख पर बैठ,सब को पास बुला रही।।

मन होता है मस्त,कितनी मोहक सारिका।
य़ह कुदरत की देन,देव कोटि की धारिका।।

अति पावन य़ह प्रीति,खुश होते हैं देवता।
इसे स्नेह स्वीकार,सबको देती नेवता।।

“मैं ना मैं ना” नाद,मैना कहती राम है।
मिलता परमानंद,मन करता विश्राम है।।

मिले सारिका भाव,प्रीति की य़ह जगती है।
प्रीति मिलन की राह,दिखाती प्रिय धरती है।।

मत जाना तुम दूर,सारिका!तुम अति भोली।
रहना हरदम पास,बोल से भर दो झोली।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[12/12, 11:50] Dr.Ram Bali Mishra: आरंभ करना सबसे कठिन है (वर्णिक )
221 112 112 111 2

आरंभ करना सबसे कठिन है।
जो भाव भरता शुभवाद दिन है।।

जाता सहज ही सरके सरल सा।
भाता जगत को गमके इतर सा।।

आसान करता अपने जनम को।
आकाश उड़ता सहसा करम को।।

बाहें झटकना बहुधा सरल है।
कर्मों करम मात्र सकार बल है।।

दीवार लखना मुड़ना सरल है।
दीवार चढ़ते रहना गरल है।।

चालाक मनसा स्थिरमान चमके।
आरंभ करता बढ़ता दमकते।।

आरंभ करता गिरता लुढ़कते।
आशारहित सा मरता विदकते।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[12/12, 16:31] Dr.Ram Bali Mishra: करना है अब प्यार नहीं डरना है (वर्णिक छंद )
14 वर्ण

112 211 211 211 22
एक सगण,तीन भगण और दो गुरु

करना है बस प्यार नहीं डरना है।
चलना है दिन रात नहीं रुकना है।।

चलता है जब प्यार नहीं डिगता है।
रहता है दिलदार नहीं झुकता है।।

मन में है इतबार सदा मनमस्ती।
दिल में है अहसास बहादुर हस्ती।।

चलता स्नेह दुलार मजा तब आता।
रहती उर्मिल याद मनोरथ भाता।।

रहता भाव अपार सदा मन मोहे।
खिलता दिव्य विचार खुदा उर सोहे।

मलिकाना हकदार सदा प्रिय भावे।
रसना गावत प्रीति सदा सुख पावे।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[12/12, 20:31] Dr.Ram Bali Mishra: दोहा

मन से करता काम जो,रहता सदा उमंग।
वही सफल होता यहाँ,देखे उत्तम रंग।।

चाहत जिसमें है नहीं,वह निर्बल इंसान।
नहीं काम में मन लगे,बंद आँख अरु कान।।

जिसको प्रिय हर काम है,छोटा बड़ा अभेद।
करता वह सब कर्म को,बिना किये कुछ खेद।।

कर्म मूल्य को जानता,बुद्धिमान इंसान।
निष्क्रिय अज्ञानी मनुज,को न आत्म का भान।।

जीवन उसका है सफल,जो करता उद्योग।
उद्यम से अनुराग रख, पाए उत्तम भोग।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[13/12, 10:00] Dr.Ram Bali Mishra: चाँदनी (पंचचामर छंद )
16 वर्ण,(वर्णिक छंद )

रहे सदैव चाँदनी अभेद्य पंथ पार हो।
निशा कभी दिखे नहीं दिवा समान धार हो।
बजे सदैव बांसुरी बहादुरी कतार हो।
बढ़े चलो अनंत को उमंग की बहार हो।

स्वतंत्रता बनी रहे यही महान मंत्र है।
अजेय विश्व भारती सचेत लोकतंत्र है।
सहर्ष राष्ट्रवाद नाद अस्तिमान यंत्र है।
विवाद के विरुद्ध युद्ध शुद्ध धर्ममंत्र है।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[13/12, 20:20] Dr.Ram Bali Mishra: बहुत पुराना य़ह रिश्ता है (दोहे)

जन्म जन्म का साथ है,इसे न जाने कोय।
सदा पूर्व के संग के,आज मिलन य़ह होय।।

नहीं अपरिचित है यहाँ,कोई भी इंसान।
सबको होना चाहिए,आत्म रूप का ज्ञान।।

सभी एक समुदाय के,रहे सभी हैं मीत।
जीवन में संयोग है,अरु वियोग का गीत।।

मिश्रा इस संसार में,सबसे मिलना दौड़।
इस संसार समुद्र में,देख सभी को पौंड़।।

नहीं किसी इंसान को,कभी अपरिचित मान।
जो भी आये पास में,उसको परिचित जान।।

नहीं अगर सम्बंध था,तो आय़ा क्यों पास?
नव्य नवल सम्बंध को,देख न रहो उदास।।

जन्म मृत्यु है चक्रवत,आदि अंत से हीन।
आना जाना अनवरत,सभी सगे आसीन।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[14/12, 10:35] Dr.Ram Bali Mishra: करुणा

करुणा प्रिय सागर प्यार बहे।
सबसे मिलती प्रिय शब्द कहे।
न कठोर रहे अवसाद हरे।
ममता प्रियता मधु भाव भरे।

करुणा रस पावन दिव्य सुरा।
मदहोश करे त्रिपुरा मधुरा।
अति मोहक भाव विचार भरा।
सरताज सभी रस की सुघरा।

करुणा प्रिय मानव काव्य विधा।
यह उत्तम स्नेह सुगंध सुधा।
बहु तृप्त करे अति भूख क्षुधा।
उर शोधक रेचक मां वसुधा।

जिस मानुष के दिल में करुणा।
वह सभ्य सुशील सदा तरुणा।
सब विश्व रहे उसके शरणा।
नित कारण कार्य अमी चरणा।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[14/12, 19:07] Dr.Ram Bali Mishra: मनोरमा (पंचचामर छंद ) (मुक्तक)

रमा करे भ्रमा करे चला करे मनोरमा।
सदा बसा करे मना सुगंध सी मनोरमा।
नहीं रहे बहिर्मुखी, सदा दिलेर ज्योति सी।
बहे असीमा अंतरा शुभांग सी मनोरमा।

मयूर नृत्य मोहिनीय दिव्य भाव भंगिमा।
कलाधरी सुलोचना शिवांगिनी सुधा समा।
विलोकनीय रम्य रूप तेजयुक्त दामिनी।
सदा बहार स्नेह भाव प्रेमदा मनोरमा।

नहीं कभी जुदा रहे,जुड़ी रहे मथे सदा।
मनोनुकूल योगिनी सुहागिनी बँधे सदा।
सहोदरी शिवत्व भाव राशि शुभ्र दिव्य है।
मिजाज दम्भहीन है पयोधरी प्रभाशुदा।

अनार की कली समान आम्रपालि रुपसी।
विलक्षणा अनूपमा प्रिया अमोल धूप सी।
सदा सजी धजी रहे नहीं परन्तु किन्तु है।
मनोरमा विराट राग अंग भव्य भूमि सी।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[15/12, 18:48] Dr.Ram Bali Mishra: संतोष (दोहे)

कामवासना में अगर,मन रहता है लिप्त।
चंचलता रहती सहज,मन बेचैन अतृप्त।।

कामी मन अति प्रबल है,इसका करो निदान।
चित्त वृत्ति अवरोध का,समुचित होय विधान।।

हो निरोध नित चित्त का, उत्तम यही उपाय।
परहित पावन पंथ ही,बनता सदा सहाय।।

कामेच्छा को मार कर,मन होता खुशहाल।
जब तक लौकिक कामना,तबतक दुखमय हाल।।

इच्छाओं को कुचल कर,पाता मन संतोष।
आशुतोष की कामना,ही सच्चा परितोष।।

थोड़ा ही ज्यादा लगे,यही तोष का भाव।
ज्यादा भी यदि कम लगे,यही काम का घाव।।

इच्छाओं के गांव में,नही तोष का गेह।
हाथ चलाना जानता,प्रिय संतोषी देह।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[16/12, 10:17] Dr.Ram Bali Mishra: भक्ति के दोहे

भक्ति मिले सत्संग से,सत्संगति से ज्ञान।
कमल विवेक खिले सरित,मानस बने महान।।

जबतक मन अज्ञान है,तबतक नहिं है भान।
बिना मधुर अनुभूति के,नहीं प्रीति का गान।।

हो अभीष्ट से प्यार जब,सुदृढ़ होती भक्ति।
दृढ़ श्रद्धा विश्वास से,बढ़े दिव्य अनुरक्ति।।

प्रभु के कृपाप्रसाद का,भक्ति सुखद परिणाम।
जन्म जन्म के पुण्य से,मिले समर्पण धाम।।

परम अलौकिक लोक में,जब बसता मन काय।
भक्ति उकेरे शक्ति को,ईश नाम लिख जाय।।

जान सके वह ब्रह्म को,जिस पर ब्रह्म प्रसन्न।
खुश हो देते अनवरत,सहज भक्ति का अन्न।।

ज्ञान और वैराग्य ही,सदा भक्ति के पूत।
रम्य भक्ति यौवन खिले,तब द्वय पुत्र सपूत।।

उर में बैठी शक्ति को,आजीवन पहचान।
भक्ति भाव से भजन हो,सतत नित्य गुणगान ।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[16/12, 17:54] Dr.Ram Bali Mishra: जलन ?
मात्रा भार 11/5

कहना अच्छी बात,जलन है?
समझाने पर मार,जलन है?
करना दिल से प्यार,जलन है?
देना प्रिय उपदेश,जलन है?
करना उत्तम बात,जलन है?
पढ़ने पर दो जोर,जलन है?
करना वार्तालाप,जलन है?
हो मोहक संवाद,जलन है?
गलत काम पर डाट,जलन है?
देना सुन्दर राय,जलन है?
यदि हो हितकर बात,जलन है?
गाना मधुमय गीत,जलन है?
दुख में होय सरीक,जलन है?
करे सदा कल्याण,जलन है?
खुद जलता संसार,जलन है।
नहीं सभ्य स्वीकार,चलन है।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[17/12, 16:51] Dr.Ram Bali Mishra: दुख के दोहे

मिला गर्भ में माह नौ,तक जीवन को कष्ट।
जीवन की य़ह कुछ अवधि,हुई उदर में नष्ट।।

होता जब भी जन्म है,जीव बहुत बेचैन।
जन्म मृत्यु के मध्य में,झूले वह दिन रैन।।

जीवन दुख की शृंखला,जीव दिखे असहाय।
किन्तु कहीं से भेजते,ईश्वर उसे सहाय।।

सुख दुख दोनों भातृ हैं,मत समझो कुछ फर्क़।
जो इनमें अन्तर लखे,वही भोगता नर्क।।

दुख का स्वागत जो करे,वह प्रसन्न इंसान।
हँसते रहना कष्ट में,है अति उत्तम ज्ञान।।

दुख में भी जो खुश दिखे,वह है बड़ा महान।
सुख में तो हँसते सभी,सारा जीव जहान।।

दुख को जो स्वीकार ले,वह उतरे उस पार।
जहाँ मिटे अवसाद सब,दिखे सुखी संसार।।

दुख की चाहत में बसे,सुख वैभव भंडार।
जीवन एक रहस्य है,दुख जीवन का सार।।

जीवन का दर्शन यही,सुख दुख सब हैं एक।
प्रथम पंक्ति में दुख खड़ा,कर स्वागत बन नेक।।

दुख का यदि सम्मान हो,मन में कभी न ग्लानि।
यही शिष्ट है आचरण,इसमें लाभ,न हानि।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[18/12, 12:51] Dr.Ram Bali Mishra: मानव धर्म

मानव धर्म यही प्रिय है सबके प्रति उत्तम भाव रहे।
नैतिक पाठ पढ़े हर मानव ग्राहक हो शुभ नीति गहे।
वाचन में शिव न्याय दिखे हर कृत्य पुनीत सुवाक्य कहे।
बात वही निकले मुख से जिससे मन का अभिमान ढहे।

कर्म दिखे सबके हित में अपनेपन का मधु प्यार जगे।
मानव मोहक काव्य लिखे सुनते मन रोग समूल भगे।
अक्षर रंग भरे सबमें हर मानव सभ्य सुशील लगे।
वाक्य कहे मिलना दिल से सब रूप लगे नित शुभ्र सगे।

मानव सत्य गहे मन से दुख कष्ट सहे सब के हित में।
अर्थ स्वभाव रहे मधुरा पर मूल्य स्व मूल्य जगे हिय में।
मानव मानस स्वस्थ रहे हर दृष्टि सुगंधित सार बने।
पोषण हो हर जीवन का प्रिय मानव स्पष्ट विचार चुने।

योग प्रभाव करे सब का सहयोग यही मन संस्कृति हो।
भोग बने सुख शांति लिए हर मानव की शुभ सत्कृति हो।
मानवता करुणा रस सिंचित मानव मर्म सुधा स्मृति हो।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[18/12, 16:53] Dr.Ram Bali Mishra: मानवता (सरसी छंद )

मानवता को कुचल रहा जो,वह दानव मतिमन्द।
सदा नीचता करता रहता,निंद्य कृत्य हर गंद।।

मानवता की पूजा करना,धार्मिक कृत्य महान।
संवेदनाशील मानव ही,रखता सब पर ध्यान।।

जो उदारता का पुतला है,उसका संत स्वभाव।
वह बनता सबका रखवाला,डाले मधुर प्रभाव।।

मानव बनना और बनाना,बहुत कठिन है काम।
मन मन्दिर को साफ रखे जो,वह पाये मधु धाम।।

जीव मात्र को गले लगाना,दिव्य स्तुत्य प्रिय कृत्य।
सभी देवगण खुश हो जाते,अनिल चन्द्र आदित्य।।

जिसके दिल में स्नेह भरा है,वही मनुज का भ्रात।
नहीं लगाता कभी भूल कर, जीव जंतु पर घात।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[18/12, 19:06] Dr.Ram Bali Mishra: प्रदक्षिणा (पंचचामर छंद )

सदैव हो प्रदक्षिणा सुमंगला सहायिका।
लगे सदैव फेरियां दिखे अजेय नायिका।
परिक्रमा चला करे सुबुद्ध भाव भार हो।
सजे धजे भजे मनुष्य भक्ति स्नेहदार हो।

अभेद दृष्टि धारणा विचारणा विशुद्ध हो।
बढ़े सदेह प्रेम धार दिव्य ज्ञान शुद्ध हो।
मनोरथी मनुष्यता असीम रम्य साधना।
विकार मुक्त कामना विशिष्ट योग आसना।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[19/12, 13:20] Dr.Ram Bali Mishra: सराहनीय कार्य (पंचचामर छंद )

सराहनीय कार्य हो उमंग की बयार हो।
सदा खिले अथाह जोश रंग स्नेहदार हो।
सुखी खुशी मनुष्यता दुखी न दीन बंधु हो।
सवार हो सहिष्णुता समग्र प्रेम सिन्धु हो।

सहानुभूतिपूर्ण भाव योगिनी अमर्त्य हो।
विराट शक्ति साधना हितार्थ नित्य सत्य हो।
दिखे नहीं विसंगती समानता बनी रहे।
अमान्य हो कुमूल्य रूप साधु सत्यता कहे।

वियोग में सुयोग हो सुयोग प्रेम अंगिमा।
रसामृता सराहनीय कृत्य भाव भंगिमा।
निजत्व कर्म वृत्ति में महान विश्व भाव हो।
वरेण्य लोकपालिका अनन्यता स्वभाव हो।

भयातुरी प्रवृत्ति का विनाश अंतकाल हो।
विनष्ट आसुरी कुवृत्ति दैत्य का अकाल हो।
न मानसी प्रताड़ना न दोषपूर्ण दंड हो।
जहां कहीं सुसाधु संत स्वस्थ मेरुदंड हो।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[19/12, 19:18] Dr.Ram Bali Mishra: रिश्ते
मात्रा भार 11/11

रिश्ते हैं अनमोल,बचा कर रखना है।
हो इनकी तारीफ,सजाते रहना है।।

रिश्तों का सम्मान,किया जो करता है।
वही सफल इंसान,बहादुर बनता है।।

रिश्तों से ही प्रीति,बहुत सुखदायी है।
इनका कर अपमान,मनुज मृतपायी है।।

संबन्धों से प्यार,दिव्य मनमोहक है।
रिश्तों पर अधिकार,मनुज का शोधक है।।

सम्बन्धों का तार,हृदय से जोड़ो रे।
मत करना प्रतिकार,नहीं मुँह मोड़ो रे।।

सच्चे रिश्ते स्वर्ण , इन्हीं को जानो रे।
दुख में ये बहुमूल्य,रत्न पहचानो रे।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[20/12, 18:36] Dr.Ram Bali Mishra: अखबार

अखबार चले हर रोज कहे बहु भांति सदा रस पान कराये।
मिलती सुख की दुख की हर बात घटी घटना हर रोज बताये।
हँसते अरु रोवत पाठक हैं विविधायन रूप धरे अखबारी।
नव भाव लिये बहता चलता करता रहाता नित नाटक चारी।

हर पृष्ठ सुखांत दुखांत दिखे सबका रग है नवचार दिखाये।
शुभ कर्म कुकर्म अधर्म दिखे प्रिय नीति अनीति विवाद सिखाये।
प्रिय नेत कुनेत अचेत मिलें प्रियवाद विवाद मलेच्छ सिधारें।
भल मानुष को दुख दानव को अखबार करे सबको अगवारे।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[20/12, 19:18] Dr.Ram Bali Mishra: सच्चा मिलन वियोग में
मात्रा भार 11/11

कभी न सोता प्यार,सदा वह मिलता है।
भले दिखे तकरार,मगर वह हँसता है।।

ऊपर से प्रतिकार,हृदय में रहता है।
प्यार अलौकिक मर्म,नहीं वह मरता है।।

लगता भले वियोग,योग यह असली है।
प्यारा नटवरलाल,नहीं वह नकली है।।

राधा कभी न दूर,कृष्ण में दिखती हैं।
दिखता भले वियोग,उदर में बसती हैं।।

बाहर से इंकार,हृदय से अनुमति है।
उर में कोमल तंत्र,प्यार पर सहमति है।।

मिलन न हो प्रत्यक्ष,नहीं कुछ अन्तर है।
अमर तत्व यह ब्रह्म,हमेशा अंदर है।।

यह वियोग से दूर,हमेशा रहता है।
करता नियमित बात,निरन्तर चलता है।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[21/12, 12:15] Dr.Ram Bali Mishra: रंगीन मिजाज (दोहे)

दिल में कलुषित भाव का,दिखता सदा अभाव।
मनोविनोदी वृत्ति ही,देती शीतल छांव।।

रसिक बना जो विचरता ,सत्व भाव भंडार।
हर मानव से प्रेम ही,उसका शिष्टाचार।।

वंदन करता प्रीति का,लगे रसायन भोग।
सिद्धहस्त वह भक्त है,रसिक मिजाजी योग।।

भरा प्यार है हृदय में, तनिक नहीं संदेह।
स्नेह बांटते जा रहा,बनकर स्वयं विदेह।।

सबमें खुद को देखता,खुद में सबकी छाप।
अपने दिल को फेंककर,करे प्रेम का जाप।।

निर्मल तन मन उर विमल,मधु रंगीन मिजाज।
खो कर अपने आप को,पहने मोहक ताज।।

है विलासिता प्रिय जिसे,आनंदक हर बात।
मुस्कानों से भर रहा, सकल लोक दिन रात।।

देख हृदय के भाव को,और प्रीति अनुराग।
खुश हो जाते वट सभी,रंग विखेरे बाग।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[21/12, 15:43] Dr.Ram Bali Mishra: तुम अति प्रिय हो (शुभांगी छंद )

तुम अति प्रिय हो,मोहक हिय हो,अतुलनीय हो,प्राणमुखी।
तुझसे सुरभित,सहज सुगंधित,मधु मनरंजित,सदा सुखी।।

तुम एकीकृत,दिव्य देवकृत,पावन संस्कृत,प्रिय प्याला।
सदा मनोरम,सुन्दर अनुपम,सबसे उत्तम,मधु हाला।।

पाकर तुझको,सबकुछ मुझको,मिली आज है,प्रीतिमुखी।
भरा हुआ है,घर मन उपवन,सकल वदन य़ह,सूर्यमुखी।।

साथ रहेगा,कमल खिलेगा,जीवन होगा,प्रेमशुदा।
भावन होगा,सावन होगा,उर में छाये,प्रियंवदा।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[21/12, 20:23] Dr.Ram Bali Mishra: तेरा साथ (अमृतध्वनि छंद )

तेरा साथ अगर मिले,गगन नहीं है दूर।
छूटे सारा जगत यह,तू केवल सुख पूर।
तू केवल सुख पूर,हृदय में,भाव पिघलता।
प्रेम उमड़ता,हृदय मचलता, स्नेह मलयता।
प्रीति शब्द से,उर्मिल मन से, मिलता डेरा।
पूर्ण भाव से,हृदय मिलन हो,मेरा तेरा।।

तेरे प्रमिल भाव से,मन अतिशय खुशहाल।
जब से आये निकट हो,बदल गयी है चाल।
बदल गयी है चाल,प्रेम रथ, आता दिखता।
चलता नियमित,बढ़ता आगे, प्रिय से कहता।
खोले दिल की,बात सकल वह,तुम प्रिय मेरे।
कितना उत्तम,प्रेम प्रणय ये,मेरे तेरे।।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[22/12, 15:35] Dr.Ram Bali Mishra: मुस्कान (आल्हा शैली)
मात्रा भार 16/15

वही जीत लेता जगती को, जिसके मुखड़े पर मुस्कान।
करता और कराता रहता,सबको अमृत का है पान।
नहीँ किसी से वह कुछ मांगे,देता रहता केवल दान।
मुस्कानों में देव विचरते,यही मधुर प्रिय सच्चा ज्ञान।

भरा हुआ है भाव हृदय में,देता सबको है सम्मान।
बड़ा नहीं वह खुद को जाने,करता कभी नहीं अपमान।
मुस्कानों से भर देता है,सारी जनता का अरमान।
नहीं किसी को पर समझे वह,उसको सबकी है पहचान।

मिलती है मुस्कान भाग्य से,परम सत्य यह बात सुजान।
साफ पाक मानव के अंदर,रहती नृत्य करे मुस्कान।
खिला खिला चमकीला चहरा,अति आकर्षक सभ्य महान।
नहीं दुश्मनी कभी किसी से,कोई नहीं यहाँ अंजान।

मुँह पर तेज विराजे हरदम,अद्वितीय है भाव अपार।
सदा प्रेम रस टपके मुख से,भरा नेह का प्रिय भंडार।
खुलते अधर दांत दिख जाते,लगता यही स्वर्ग का द्वार।
रूप अलौकिक मधु सम्मोहक,खुश होता सारा संसार।

मिली दान में पुण्य भाग से,ईश्वर का अनुपम वरदान।
मुस्कानों से जीत विश्व को,परम दिव्य मीठा यह ज्ञान।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।

Language: Hindi
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