—– स्वप्न सलौने —–
दोहा —
छुपे मार्तण्ड जब क्षितिज, तम फैले चहुँ ओर।
स्वप्न लोक में पहुँच कर, मनवा होत विभोर।।
चौपाई —
नींद चैन की मैं सोया था
स्वप्न सुरा में मैं खोया था
देख विटप में एक झरोखा
अद्भुत अचरज हुआ अनोखा
सहसा एक दृश्य गहराया
खुद को स्वप्न नगर में पाया
गंध हृदय में फैली ऐसी
कुसुम गुलाब इत्र के जैसी
श्वेत वर्ण पीतांबर सोहे
एक अप्सरा मन को मोहे
घूम रही थी वन उपवन में
खिले पुष्प थे चंचल मन में
मनमोहक थी हँसी निराली
रक्तिम थी अधरों की लाली
नयन कटार तीक्ष्ण बहुतेरे
किये हृदय में घाव घनेरे
लटकत शृंग देह पर गीली
चपल चंचला सी चमकीली
कण्ठ कोकिला कू कू करता
कलियों में मधुरस है भरता
बालि उमरिया की थी बाला
लगती थी आसव का प्याला
छैल छबीली छम छम करती
छन छन छन पग पायल बजती
आभा मंडल छवि चेहरे की
मंजुल मीन सिंधु गहरे की
कच्ची कोमल कंचन काया
हो जैसे सुरपुर की माया
स्वर्ग लोक की सुरभि समीरा
हृदय हुआ तब धीर अधीरा
एक नज़र जब उसको देखा
खिची नेह की हिय में रेखा
कर्ण प्रमोदित हुए मंत्र से
गूँजी थी ध्वनि समय यंत्र से
पटल नयन के हमने खोले
धत् तेरे की मुख से बोले
स्वप्न सलौना था यह कैसा
हो यथार्थ में बिल्कुल ऐसा
मन मंदिर में उसे सँजोए
हरदम रहते खोये खोये
प्रणय निवेदन करूँ नाथ से
होय मिलन अब प्रभु हाथ से
दोहा –
रात सलौनी कट गयी, स्वप्न बने हमराज।
बिन पंखों के शून्य में, हैं करते परवाज़।।l
पंकज शर्मा “परिंदा”