स्वप्न में रौशनी
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रात में अँधेरा था और अँधेरे में हम
अभ्यस्त आँखों में ही हो रहे थे गुम।
रौशनी थी, अँधेरे की थी पर,बड़ी अजीब।
धीर–धीरे डूब रही थी सारी उम्मीदें और नसीब।
अचानक कौंधा कुछ और चित्रवत् हुआ तन।
स्वप्न था, स्वप्न के उस छाया को करूं नमन।
एक गुफा मेरे मष्तिष्क में कर रहा था छल-छद्म।
उसमें एक शिव-पिंड से रौशनी ले रहा था जन्म ।
सिहर कर सिमट गया आदमी का मन भविष्य में।
आँखें उलझ रही थीं उस अति सुंदर परिदृश्य में।
स्वच्छ सुव्यवस्थित पुष्प-वाटिका में खिले थे फूल।
सुगन्धित था अगर-गंध से वात ही नही वरन् धूल।
शिव पूजित थे और प्रसन्न।
वर देने को आतुर पूरे अकृपण।
सुख मांगूं या संतृप्ति,माया या मोक्ष।
लालसाओं से मैं ही हो गया तिरोहित व परोक्ष।
मेरा सर विस्फोटित हो बिखर गया आकाश में।
परिवर्तित हो गया मेरा अस्तित्व अदृष्ट प्रकाश में।
तुच्छता की पराकाष्ठा में लिपटा था मैं,मेरा विभव हो गया।
शिव हो जाने की प्रक्रिया का तब आत्मानुभव हो गया।
इसलिए जीवन ने दिया जो दर्द,व्यथा,पीड़ा,घुटन,संत्रास
दु:ख,आंसू,भय,पराजय विवशता और निरीहता का अनुप्राश
पी लिया समझ कर विष।
पुनर्जन्म के गह्वर से निकलूंगा तो बनूंगा ईश।
इस स्वप्न के विवर में दुधिया प्रकाश था।
कोई शिव तराश कर मुझे आदमी करेगा ये आस था।
किन्तु,शिव को मुझे तराशने से रोकने गढ़े गये ग्रन्थ।
शिव तो अन्त्यज्य का अग्रज है पर,कह दिया ये मनगढंत।
वहाँ महान यज्ञ था।
पर, कोई नहीं स्थितप्रज्ञ था।
यज्ञ की वेदी से किसीके जटाओं से बहने लगा रक्त,
रक्त-स्नान करने लगे थे देवताओं के प्रपंची भक्त।
क्रोध से उफन अग्नि-पुंज, रक्त पर अमृत गिराएँ।
उत्पन्न हों तालाब के पास अश्वत्थ के पत्तों की शिराएँ।
कोई सिद्धार्थ वहाँ आकर दु:खों को गुनें।
अहिंसा,सत्य हमारे सुख के लिए चुनें।
यह स्वप्न सत्य हों कि मनुष्य मानवोचित करें कर्म।
स्वप्न के यथार्थ को जियें और समझें शिक्षाओं के मर्म।
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