स्वप्निल मुकाम…
मेरे वो सपने जो कभी बंद
तो कभी खुली आँखों से बुने मैंने
जिनमें कभी रास्तों तो
कभी मंज़िल को छुआ मैंने
मेरा वह स्वप्निल मुकाम
जिसका तिनका -तिनका मेरे यथार्थ
मेरे शब्द, मेरी परिभाषाएं
मेरी सोच की सीमा
जो अनंत तक जाती
लौटने पर न तो थकन, ना उदासी
कुछ पाने का एहसास
कुछ नई उमंगें कुछ नई तरंगें
फिर किसी सपने को बुनने की तैयारी
गज़लों का आशियाना
शब्दों का पैमाना
क्षितिज के पार से होता हुआ
अर्श को छूकर
खुद ही में डूबकर
खुद को खोजा
कई बार जिसको मैंने
तमाम रातें जागकर बनाया
वह मेरा स्वप्निल मुकाम
पाने से पूर्व छोड़ने का आभास
मैं कुछ और जी पाती काश!
अपने आशना के तिनके दिखलाऊँ कैसे
भूलूँ कैसे स्वप्न को
स्वयं को अब बहलाऊँ कैसे
अपने मन को तमाम उम्र समझाऊँ कैसे…
अपने मन को तमाम उम्र समझाऊँ कैसे…
– ✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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