स्वधर्म;-निजता की पहचान*
*कौन कहता है नालायक हैं ये सब,
मगर किसी ने लायक भी तो नहीं कहा !
असमंजस में हूँ
लोगों ने कहा !
कब नहीं थे असमंजस में ?
भावनाएं है हम सबकी,
मगर जीने भी तो नहीं दिया गया !
जिनके भी उठे सिर,
कुचल दिया गया,
चार दिन की हैं चांदनी,
इस कदर फंसा गई,
कम से कम तपती धूप ही थी अच्छी,
पलाश के फूलों पर पड़ अपना मिजाज बता गई,
उस लय तर्ज स्वभाव जिसे धर्म कहते है,
उससे तो निज पहचान अच्छी ,
धर्म नहीं जिम्मेदारी सिखाता है ,
मेरा स्वभाव ही मेरी पहचान है,
उसे होश निजता में जीओ,
जागरण हर जीव का धर्म है,
फिर कोई मूलभूत चीज़ नहीं,
कुछ भी गौण नहीं,
सबका अर्थ है,कुछ निरर्थक नहीं,
फिर तुम मालिक हो,
कोई गुलाम नहीं बना सकता,
Mahender Singh Author at Sahityapedia..