स्मृतिशेष मुकेश मानस : टैलेंटेड मगर अंडररेटेड दलित लेखक / MUSAFIR BAITHA
क्रांतिधर्मी कवि कबीर के नाम से दो पंक्तियाँ हैं –
जब तुम आए जगत में, जगत हँसा तुम रोए।
ऐसी करनी कर चलो, तुम हंसो जग रोए।।
सृष्टि के आरम्भिक मनुष्य से लेकर अब तक लोग संसार में आकर और जीकर मृत्यु को प्राप्त करते रहे हैं। विचित्र है यह नश्वर जीवन। जीवन तो हमें जीना ही होता है अगर हम यह पा गये, जीवन यह दीर्घ हो या लघु, कमजोर हो या मजबूत, स्वस्थ हो या अस्वस्थ, स्वहित तक सीमित रह जाने वाला हो या परोपकारी, विवेकी हो या अविवेकी, रचनात्मक हो या रचना विहीन। लेकिन सामान्य से हटकर समाज हित में स्वस्थ कार्य कर गुजरने वाले जीवन की एक सार्थकता तो बन ही जाती है, यह सार्थकता चाहे, तात्कालिक हो या दीर्घजीवी। कुछ लोग तो कम जीवन पाकर भी समाज निर्माण में उल्लेखनीय एवं स्मरणीय योगदान कर गये हैं। ऐसों में अमर शहीद एवं स्वतंत्रता सेनानी सरदार भगत सिंह अग्रगण्य हैं।
कहना यह है कि कुछ लोग छोटा जीवन जीकर भी अपने कर्मों से काफी कुछ प्रेरक और अनुकरणीय छोड़ जाते हैं। हिंदी दलित साहित्य में अपनी विशिष्ट रचनात्मकता की धमक महसूस करवाने वाले मुकेश मानस का महज 50 से कम की उम्र में हमारे बीच न रहना जीवन और शरीर की अनिश्चितता और नश्वरता को नज़दीक से बता गया है। बीमारी से जकड़े मुकेश मृत्यु से पहले इधर, कृत्रिम सांस, वेंटिलेटर पर भी रहे, लिवर एवं कई अन्य रोगों की गम्भीर गिरफ्त में थे, जिससे वो उबर न सके। पता चला है, वैवाहिक संबंध में दरपेश दिक्क़तों ने भी कहीं न कहीं उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाया था।
मुकेश मानस के जाने के कोई दो वर्षों बाद जब उनकी फेसबुक टाइमलाइन टटोल रहा हूँ तो उनके परेशान होने की कुछ वजहें भी मिल रही हैं। मसलन, अपनी एक एफबी पोस्ट में उन्होंने दो पंक्तियाँ रखीं –
वो मेरी वजह से परेशान बहुत है/मैं मरूँ तो मुझे भी थोड़ा चैन मिले।
किसी मित्र ने इसपर चिंता व्यक्त की थ्रेड कमेंट कर तो उन्होंने बताया कि यह कविता है, इसके भाव समझें। तब मैंने भी लिखा था, “ऐसा न कहें, आपसे चैन पाने वालों की ही नहीं बेचैन होने वालों की भी आप जरूरत हैं!”
मुकेश मानस की आकस्मिक मृत्यु की खबर मुझे पहले पहल दिल्ली में रहने वाले प्रसिद्ध दलित साहित्यकार डॉ जयप्रकाश कर्दम की फ़ेसबुक पोस्ट से मिली। और फिर, दिल्ली बेस्ड दलित साहित्यिक अनिता भारती, प्रो श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ रजतरानी मीनू, प्रो नामदेव आदि की फ़ेसबुक पोस्ट भी पढ़ने को मिली। इसके बाद तो अनेक दलित, गैरदलित साहित्यकार एवं अन्य मित्रों की फ़ेसबुक पोस्ट एवं टिप्पणियाँ आईं जो मुकेश की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने वाली थीं।
चर्चित ब्लॉगर एवं बहुजन सोशल एक्टिविस्ट संजीव खुदशाह ने श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए फेसबुक पोस्ट में लिखा कि मुकेश मानस लेखकीय राजनीति से दूर प्रगतिशील सर्व स्वीकार्य लेखक थे। संजीव बताते हैं कि उनके द्वारा कांचा इलैया की अंग्रेज़ी किताब ‘व्हाई आई एम नॉट हिंदू’ का हिंदी अनुवाद ‘मैं हिंदू क्यों नहीं हूं’ बेहतरीन अनुवाद था। इस विषय में वे बताते हैं कि बाद में ‘जूठन’ आत्मकथा फेम के दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इसी किताब का अनुवाद किया और मुकेश मानस का आरोप रहा है कि अनुवाद को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने चुराया है। इस विषय में मेरा कहना यह है हिंदी दलित लेखकों का हाथ अक्सर अंग्रेज़ी में तंग होता है, लेकिन मुकेश अपवादों में थे। उन्होंने प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम एन राय की अंग्रेज़ी किताब ‘इंडिया इन ट्रांजिशन’ का भी अनुवाद किया था। मुकेश का अनुवादक वाला व्यक्तित्व यह भी बताता है कि वे वैज्ञानिक सोच एवं समाज विज्ञान में किस तरह की गहरी रुचि रखते थे।चर्चित दलित कवि – कहानीकार पूनम तुषामड़ के स्मृतिलेख, फॉरवर्ड प्रेस, दिनांक 13 अक्टूबर 2021, से पता चलता है कि उनके पति गुलाब सिंह मुकेश मानस के नजदीकी मित्रों में से थे। पूनम के लेख में मुकेश मानस के जीवन एवं लेखन का एक अच्छा स्केच खींचा गया है।
मुकेश की आकस्मिक मृत्यु पर फ़ेसबुक पर तीन चार टिप्पणियां मुझे किंचित आलोचनात्मक दिखीं अथवा आलोचना का सूत्र लिए दिखीं। मोहनदास नैमिशराय ने शोक व्यक्त करते हुए यह कहा है कि मुकेश मानस के लेखन में प्रायः दलित अस्मिता एवं दलित चेतना नहीं दिखती। यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है और गौरतलब है। दलित समुदाय से आने मात्र से कोई दलित लेखक नहीं कहला सकता, दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण निकर्ष अथवा बिंदु यह भी है और नैमिशराय जी का कथन उससे जुड़ता है। खैर, यह विस्तार में जाने का मौका नहीं है। दिल्ली के कुछ लेखकों ने मुकेश मानस को स्मरण करते हुए उनसे बहुत नजदीक से जुड़े होने की बात भी कही है। हीरालाल राजस्थानी एवं हेमलता महिश्वर की टिप्पणियां कुछ इसी तरह की थीं। हीरालाल की टिप्पणी से यह भी ध्वनित हुआ कि इस घटना के समय मुकेश उनसे किंचित नाराज चल रहे थे, मगर, आपस का संबंध कायम था।
मैंने पाया कि कुछ लोगों ने मुकेश मानस को दलित लेखक के रूप में याद किया तो कुछ ने प्रगतिशील लेखक के रूप में उन्हें स्मरण किया।
वैसे, मुकेश मानस, चाहे दलित चेतना की कसौटी पर सीधे-सीधे अथवा बहुत खरे न उतरते हों लेकिन दलित सरोकार तो उनके स्पष्ट थे और विविध आयाम लिए हुए थे। उनकी पत्रिका ‘मगहर’ तो दलित एवं प्रगतिशील साहित्य का एक मंच ही था। किंवदंती है कि कबीर द्वारा मृत्यु की हिंदू अवधारणा को निगेट करने के लिए मरने के समय स्वर्गदायक काशी से नरककारक मगहर जाने का चुनाव किया गया था। ख़ुद पत्रिका का नाम ‘मगहर’ कबीर की इसी क्रांतिकारी एवं दलित चेतनापरक वैज्ञानिक विचार के मेल में रखा गया प्रतीत होता है। और डॉ तेज सिंह के मरने पर उन्हें अंबेडकरवादी आलोचक करार देते हुए पत्रिका का स्मृति अंक निकालना भी मुकेश के दलित चेतना एवं सरोकार से संबद्धता को पुष्ट करता है। मुझे लगता है, मोहनदास नैमिशराय मुकेश मानस पर जो रिजर्वेशन रखते हैं वह मुकेश के कुछ बड़नाम सवर्ण साहित्यकारों के प्रति अनलोचनात्मक रहने अथवा उनकी रचनाओं पर अकुंठ प्रशंसा भाव रखने के चलते हैं। मुकेश ने दलित सरोकार के चिंतन तो किये मगर, वह उस तरह से प्रमुख नहीं रहा जिस तरह से होने की नैमिशराय जी अपेक्षा रखते थे। इस बात को मैं एक उदाहरण से समझाता हूँ। एक बार मुकेश मानस हिंदी के मशहूर कवि की प्रशंसात्मक चर्चा कर रहे थे तो नैमिशराय जी ने उन्हें इस तरह से टोका : “मुकेश मानस जी,
स्वयं मंगलेश डबराल कितने कवियों को जानते हैं जबकि उन्हें सब जानते हैं। पहला कारण वे ब्राह्मण हैं, दूसरा वे जनसत्ता में रहे।
साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में वे ’90 के दशक की कविता पर बोल रहे थे। बाद में मैंने सवाल किया। मंगलेश जी, आपने दलित कवियों को क्यो छोड़ दिया? तब उन्होंने पूछा, कौन दलित कवि? मैंने कहा, सूरजपाल चौहान। उन्होंने सीधे जवाब दिया, मैं किसी सूरजपाल को नहीं जानता। फिर मैंने पूछा, वरिष्ठ दलित कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि को तो जानते होंगे? मंगलेश जी बोले, हालांकि जानता हूं पर क्या जरूरी है किसी दलित कवि के बारे में मैं कुछ कहूँ। यह था साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में उनका जवाब। तीसरा कारण उनके प्रसिद्ध होने का याद आया। वे कम्युनिस्ट हैं।”
वैज्ञानिक सोच के धरातल से मुकेश मानस की विचार-सरणी ही आगे पड़ताल करें तो उनका बौद्ध विचारों के प्रति भी गहरा आकर्षण था जो आस्था की हद तक था। यही कारण था कि उन्होंने गौतम बुद्ध की देशानाओं (उपदेश) का काव्य रूपान्तरण कर एक कविता संग्रह ही ‘भीतर एक बुद्ध’ नाम से रच डाला। अधिकांश आधुनिक विद्वान् पालि त्रिपिटक के अंतर्गत विनय और सुत्त पिटकों में संगृहीत सिद्धांतों को मूल बुद्धदेशना मानते हैं। इस काव्य संग्रह की एक कविता खुद उन्हें बेहद पसंद थी जिसे वे कई बार फेसबुक पर अपने मित्रों को जन्मदिन की बधाई देने के क्रम में उद्धृत करते थे। उक्त कविता की पंक्तियाँ देखिये –
बीज तो तुम्हारे भीतर ही है/वृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही उगेगा/और फूल भी
खिलेंगे तुम्हारे भीतर ही/और खुशबू का क्या है/वह तो किसी को भी मिल सकती है।
मुकेश की कोई 15 पुस्तकें प्रकाशित थीं जो कविता, कहानी, आलोचना, हिंदी से अंग्रेजी अनुवाद, जीवनी, मीडिया लेखन, संपादन आदि विविध साहित्यिक विधाओं एवं अन्य फील्ड से संबद्ध थीं। यह बताता है कि उनका लेखकीय व्यक्तित्व एवं फलक काफ़ी विस्तृत था। आप देखेंगे कि मुकेश का पहला कविता संकलन ‘पतंग और चरखड़ी’ सन 2001 में आता है जब उनकी उम्र महज 28 साल थी, जबकि अधिकतर दलित लेखक देर से लिखना शुरू करते हैं। यह भी कि महज 50 वर्ष की उम्र में एक दलित लेखक द्वारा 15 पुस्तकें लिख जाना, वह भी विविध विधाओं में एवं विषयों पर, बड़ी बात है। उनके द्वारा लिखी गयी बहुतेरी चीजें तो उनके आकस्मिक निधन के चलते असंकलित ही रह गयी होंगी।
जहाँ तहाँ से मुकेश मानस के वैचारिक व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटा रहा हूँ तो उन्हें बहुपठित और समाज सरोकारी पा रहा हूँ। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देशभर में फैले 1984 के सिख दंगों पर दिल्ली बेस की उनकी कहानी उनके संवेदनशील लेखकीय व्यक्तित्व का उदाहरण है। उन्होंने दंगे में मारे गये पड़ोसी सिख की हौलनाक कहानी लिखी है कि कैसे सिख युवक ने उनके घर में शरण तो ली पर हिंदू दंगाई उन्हें बाहर खींच ले गये और दंगाइयों की भीड़ ने उसकी नृशंसता पूर्वक हत्या कर डाली।
अपने सम्पादन की पत्रिका ‘मगहर’ का मुकेश ने अम्बेडकरवादी लेखक डा तेज सिंह की मृत्यु के बाद विशेषांक निकाला जिसका अतिथि सम्पादन उन्होंने दलित लेखिका रजनी अनुरागी से करवाया। 414 पृष्ठों के इस भारी भरकम अंक में उन्होंने ‘अम्बेडकरवादी वैचारिकी की नींव’ शीर्षक से आलेख लिखा जिसमें उन्होंने ‘साँच कहे तो मारन धावै’ उपरि शीर्षक भी दिया और डा तेज सिंह के विचारों एवं व्यक्तित्व का शानदार आलोचनात्मक आकलन गया, एक कुशल आलोचक की भांति। हालांकि यह डा मृत्यु पर स्मरण आलेख था मगर, उन्होंने सलीके से अपनी सांगत बातों एवं सोच को रखा। तटस्थता बरतते हुए कितनी खूबसूरती से वे मत मतांतर रखते हैं, इसकी बानगी उस लेख के इस अंश में देखिये, “उनकी वैचारिक यात्रा पर मैं अभी कुछ बातें ही कह सकता हूँ जो शायद मेरे तईं अधूरी ही हैं। उनका समग्र मूल्यांकन अभी मेरे बूते के बाहर है। इसकी और तो वजह यह है कि तेज सिंह अभी भी अपनी वैचारिकी की पूर्णता की यात्रा में ही थे और यात्रा का मूल्यांकन एक यात्रा करने जैसा ही है।” इसी आलेख में मुकेश मानस की सम्मति या कि निष्पत्ति है, “संस्कृति और साहित्य की आलोचना की वैचारिकी के स्पेस में प्रोफेसर तेज सिंह एकमात्र ऐसी कड़ी थे जो भारतीय संदर्भ में प्रगतिशील आलोचना के मार्क्सवादी नजरिये को एक विशिष्ट अर्थ में एक पुल की तरह जोड़ते थे।” आगे डा तेज सिंह के आलोचनात्मक नजरिये की शिनाख्त रखते हुए मुकेश बताते हैं कि ‘अम्बेडकरवादी कहानी’ से दलित कहानी की अम्बेडकरवादी नजरिये से जाँच – पड़ताल करते हुए अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा की ओर बढ़ते हैं। मुकेश बताते हैं कि डा तेज सिंह ने किस तरह से ‘अम्बेडकरवादी स्त्रीवाद’ की अवधारणा का विकास किया और कैसे वे ‘राजेंद्र यादवी’ कैलीबर दिखाते हुए अपनी पत्रिका ‘अपेक्षा’ में लगातार उन लोगों के विचार भी छापते रहे जिनसे वे खुद असहमत रहते थे और उनका संपादन मंडल भी।
मुकेश ने कुछ बेहतरीन कविताएं लिखीं जो उनके भाषा शिल्प एवं देश दुनिया की महत्वपूर्ण घटनाओं एवं समस्याओं के प्रति सजगता एवं सरोकार को दिखलाता है। कविताओं के ग़ज़ल और गीत सेक्शन में भी उन्होंने हाथ आजमाए। उनकी कुछ बेहतरीन कविताओं को उद्धरित करना यहाँ समीचीन होगा।
मिथकीय मूलनिवासी राजा बलि और उसके प्रतिपक्षी छली वामन की कथा में दलित चेतना का रंग भरते हुए मुकेश मानस ने ‘बलिगाथा’ नामक यह कविता लिखी थी :
वामन और बलि की गाथा
सुनी आपने बारम्बार
उसी कथा को ज़रा समझकर
आज सुनाऊँ पहली बार।
बलि था राजा असुर क्षेत्र का
महिमा जिसकी अपरम्पार
बलिराजा का बलि हृदय था
प्रेम, अहिंसा का आगार।
जहाँ तलक था उसका शासन
न्याय वहाँ तक होता था
ख़ुशहाली थी चारों ओर
दुखी न कोई शोषित था।
राज्य में उसके सभी नागरिक
ऊँचे और सुजान थे
जात-पाँत का नाम नहीं था
सारे एक समान थे।
नाम उसी का गूँज रहा था
दूर-दूर तक दिक्-दिगन्त
उसकी दिव्य कीर्ति ऐसी
कहीं नहीं था जिसका अंत।
उत्तर में था ब्राह्मण क्षेत्र
ब्राह्मण थे जिसमें भगवान
मगर बलि की बली पताका
करती थी उनको हैरान।
चाहते थे झुक जाए दक्षिण
हों ख़त्म सभी उसके गुण-मूल्य
डूब जाए ये आदि सभ्यता
रह जाए बस ख़ाली शून्य।
मूल्य सभी जो पनप रहे थे
बलि के काम-काज से
बिल्कुल मेल न खाते थे
ब्राह्मण धर्म समाज से।
“बलि है राजा घोर अधर्मी
माने ना भगवान को
धरती पर ये पाप है भारी
ख़त्म करो शैतान को”
ये थी राय ब्राह्मणों की
बलि राजा के बारे में
कीर्ति जिसकी दिक्-दिगन्त थी
उस राजा के बारे में।
मगर बलि राजा दक्षिण का
क्योंकर वह झुक सकता था
ब्रह्म क्षेत्र के लिए बलि,
अटल अबूझ चुनौती था।
युद्ध न सीधे कर सकते थे
बलि था ऐसा शक्ति भवन
बलि साम्राज्य मिटाने को
चाल नई गढ़ते ब्राह्मण।
और एक दिन उदित हुआ
उत्तर में वामन अवतार,
पौराणिक युग था वो पर
गढ़ा आधुनिक चमत्कार।
ब्रह्मक्षेत्र से शुरू हुआ फिर
अद्भुत एक कथा संसार
नायक जिसका वामन था
जो था विष्णु का अवतार।
वामन से ताक़तवर था
वामन का अद्भुत प्रचार,
ज्ञानी वामन अजानुबाहु है
जिसमें है ताक़त अपार।
ब्रह्म क्षेत्र से हुई घोषणा
जल्दी वो दिन आयेगा
वामन जाकर दक्षिण में जब
बलि को मार गिरायेगा।
बलि राजा हो गया अचंभित
कैसा ये वामन अवतार,
मुझसे उसका कैसा वैर
रार करे मुझसे बेकार।
शुक्रचार्य ने कहा बलि से
है असत्य ये निरा अटूट,
है फ़रेब ये ब्रह्म क्षेत्र का
जल्दी ही जायेगा टूट।
आ पहुँचा वो दिन भी जब
पीछे लेकर ब्रह्म क़तार
वामन छलिया आ पहुँचा
बलि राजा के द्वार।
पूछा बलि ने वामन से
बोलो हे विष्णु अवतार
तुमको मुझसे बैर है क्योंकर
जो ठाने हो मुझसे रार?
बोला वामन, हे बलिराजा!
मैं तो जोगी जनम-जनम का
दानी हो तुम बड़े जगत में
लेने आया थोड़ी भिक्षा
शुक्रचार्य ने कहा बलि से,
वामन है ये ब्राह्मण यंत्र
वैर छोड़कर माँगे भिक्षा
इसमें है कोई षड़यंत्र।
लेकिन भिक्षा माँग रहा था
विष्णु का वामन अवतार
दानवीर बलि कैसे करता
भिक्षा देने से इंकार!
बलि बोला, हे वामन देव!
ये राज्य, ये महल अटारी
है सब कुछ इस देश के जन का
जो मेरा, वो तुम पर वारी!
नहीं चाहिए महल अटारी
वामन बोला बलि से हँसकर
मैं तो माँगू थोड़ी भूमि,
वो भी केवल तीन क़दम भर!
जितनी चाहे उतनी ले लो
साँझी है ये भूमि सबकी
वामन चला नापने धरती
बली के इतना कहते ही..
एक पाँव उठा कर ऊपर
बोला वामन-गगन हमारा
हमने उसको नाप लिया है
अब आकाश नहीं तुम्हारा।
दूजा रखकर पाँव भूमि पर
बोला वामन– धरा हमारी
हमने उसको नाप लिया है
अब ये धरती नहीं तुम्हारी।
बलि राजा अब ये बतलाओ,
रखूँ तीसरा पाँव कहाँ पर?
कहा झुकाकर शीश बलि ने
रखें तीसरा पाँव यहाँ पर!
वामन ने जैसे ही रखा
पाँव तीसरा बलि शीश पर
जलने लगा पाँव अगन की
ज्वाल लपट में धू-धूकर!
वाणी गूँजी तभी गगन में
वामन तुमको जलना ही था
बलि राजा को धोखा देकर
ये अंजाम भुगतना ही था।
हा! हा! करता भागा वामन
पीछे-पीछे सारे ब्राह्मण
अगन छोड़ती कैसे उसको
राख हो गया जलकर वामन।
वामन को सब भूल गए
छली कपट का जो अनुयायी
लेकिन दक्षिण की जनता
बलिराजा को भूल न पाई
‘साहित्य कुंज’ ब्लॉग पर प्रस्तुत इस कविता पर डॉ. रवीन्द्र कुमार दास लिखते हैं कि मुकेश मानस की यह कविता एक खंडकाव्य है जो प्रसिद्ध बलि-वामन आख्यान का एक अनिवार्य पुनराख्यान है। यहाँ कहन शैली महत्वपूर्ण है। कथित धर्म का प्रशासन बिना कुटिलता के नहीं चल सकता है, इस बात को बताती यह कविता उदार हृदय असुर राजा बलि का वामन द्वारा ठगे जाने को सरल शब्दों में बताती है। मुकेश मानस की यह कविता बिना हो-हल्ला मचाए विपक्ष की चतुराई को बेपर्दा करती है। वहीं डॉ. राजेश कुमार चौहान भी इसपर पर्यवेक्षण है कि मुकेश मानस की लम्बी कविता ‘बलिगाथा’ में मिथकीय कथा के मूल आधार को ज्यों का त्यों रखते हुए, पुरानी कविता के काव्य कौशलों का इस्तेमाल करते हुए उसमें ज़रा सा परिवर्तन करके मूल मिथकीय कथा के प्रभाव को उलट दिया है।
मुकेश मानस की एक ग़ज़ल और गीत भी देखिये :
ग़ज़ल
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खुद से ही बेगाने हैं
दर्द भरे अफ़साने हैं
जब भी अपने भीतर झांका
तह्ख़ाने-तह्ख़ाने हैं
हमको धोखा देने वाले
सब जाने पहचाने हैं
अब भीतर का दिया जला लो
कदम-कदम वीराने हैं
गीत
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सागर झरने रोएँगे तो मेरे अँसुअन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछ्ड़ेगे तो महामिलन का क्या होगा
मैंने मन के आँगन में, प्रेम सुमन खिलाए थे
तुमने अपनी ख़ुशबु से, जो आकर के महकाए थे
तुम प्रेम नदी ही सूख गईं तो, इस उपवन का क्या होगा?
हम.………………
मैंने अपने अंतर को, मंदिर एक बनाया था
तुमको उस मंदिर में एक देवी सा सजाया था
जो तुमको अर्पित करना था, अब उस जीवन का क्या होगा?
हम ….…
और यह उनकी ‘आंखें’ शीर्षक कविता :
तेरी आंखें चंदा जैसी
मेरी आंखें काली रात
तेरी आंखों में हैं फूल
मेरी आंखों में सब धूल
तेरी आंखें दुनिया देखें
मेरी आंखें घूरा नापें
तेरी आंखें है हरषाई
मेरी आंखें हैं पथराई
तेरी आंखें पुन्य जमीन
मेरी आंखें नीच कमीन
तेरी आंखें वेद पुरान
मेरी आंखें शापित जान
तेरी आंखें तेरा जाप
मेरी आंखें मेरा पाप
तेरी आंखें पुण्य प्रसूत
मेरी आंखें बड़ी अछूत
‘हिंदवी’ ब्लॉग से जुटाई गयी कविता ‘आज का समय’ में बानगी देखिये दलित चेतना की, कितनी गहराई, खूबसूरती एवं नायाबपन से बातें की हैं कवि मुकेश मानस ने :
कभी हुआ था एक मनु
बड़े जतन से
सोच-विचार कर
उसने बनाई थी एक सलीब
फिर उस मनु ने पैदा किए
असंख्य मनु
और असंख्य मनुओं ने बनाई
असंख्य सलीबें
अगर आज
मनुओं का और
उनकी सलीबों का समय है
तो उन सलीबों को
उतार फेंकने का भी समय है।
मुकेश से अपने ताल्लुकात की बात करूँ तो मेरी शुरुआती पहचान दूरस्थ मोड की ही हुई। कहिये कि पहले हम पेन फ्रेंड बने। हमने एक दूसरे को पत्र पत्रिकाओं में पढ़कर एवं खतोकिताबत से जाना। मुझे याद है कि एक बार टेलीफोन से हुई बातचीत में उन्होंने मेरे नाम, मुसाफ़िर बैठा, के यूनिकनेस एवं विरोधाभासी होने का संकेत भी किया लेकिन वे मुसाफ़िर और बैठा की कथित असंगति के लिए सामने से प्रश्नाकूल नहीं हुए; नहीं तो कुछ बेहूदे लोग मेरे नाम और सरनेम की संगति पर आपत्तिजनक कमेंट कर बैठते हैं, वैसे लोग भी जिनके नाम कथित देवी देवताओं के नाम पर होते हैं और उन्हें यह अस्वाभाविक व असंगत नहीं लगता। लोग दरअसल, प्रायः लकीर के फकीर होते हैं, अपना विवेक और मस्तिष्क भरसक ही खर्च करते हैं, परंपरा से चले आ रहे सही गलत, विवेकी अविवेकी ज्ञान और धारणाओं को लेकर चलने के आदी होते हैं।
आपसी अन्तःक्रिया की तलाश में फेसबुक मैसेंजर पर झाँका हो मुकेश के साथ बहुत थोड़े आपसी संवाद मिले। इससे पता चला कि इस मोड में 2010 में हमारी पहली चैट हुई और उन्होंने पता मांग कर उसी वर्ष प्रकाशित अपना काव्य संग्रह ‘कागज़ एक पेड़ है’ मुझे डाक से भेजा। दूसरी चैट सन 2018 के मार्च माह में आकर होती है जब मैं पत्नी का इलाज कराने दिल्ली गया हुआ होता हूँ। “पत्नी के ‘एम्स’ में इलाज के सिलसिले में दिल्ली में हूँ। मौका लगने पर मिलना चाहता हूँ।”, चैट एकतरफा ही दर्ज़ है, स्पष्ट है, बाक़ी बातें हमारी मोबाइल पर होती हैं और हम मिलते हैं। वह पहली और आखिरी सदेह मुलाक़ात होती है। 2018 के ही सितंबर में एक और चैट किया है, वह भी मेरी ही तरफ से है, “जय भीम! भाई, भीमराव गणवीर जी का डाक का पता दीजिये और उनका फोन नम्बर भी। उन्हें अपना काव्य संग्रह भेजूंगा। आपका हवाला देकर उनसे बतियाना भी चाहूंगा।” जवाबी संदेश नहीं भी नहीं है। इससे पता चलता है कि उक्त लेखक, भीमराव गणवीर का पता मुकेश ने मुझे व्हाट्सऐप पर भेजा होगा। उस लेखक की भूरि भूरि प्रशंसा मुकेश ने मुझसे की थी। अफ़सोस कि व्हाट्सऐप पर अभी कोई भी आदान प्रदान अंकित नहीं है। मोबाइल नंबर बदलने अथवा अन्य तकनीकी करणों से हमारा एक भी आपसी व्हाट्सऐप संवाद नहीं बचा है। यह रहता तो आपसदारी की अनेक अन्य बातों का एकाउंट भी यहाँ मैं दे पाता। बहरहाल, व्हाट्सऐप पर अंतिम संवाद हमारा 15 अगस्त 2021 को होता और जब मैं उन्हें जन्मदिन की बधाई देता हूँ, “शुक्रिया” जवाब में आता है। प्रसंगवश एक बात कहूँ, जन्म की तिथि मुकेश की बहुत सम्भव है, नकली हो। एक जनवरी, 26 जनवरी और 15 अगस्त वाली जन्म तिथियां हमें बहुतायत में मिलती हैं, स्मरणीय और महत्वपूर्ण दिवस होने के चलते, ख़ासकर वैसे लोगों की जन्मतिथि, जिनका असली जन्मदिन कहीं दर्ज़ किया गया नहीं होता, माता पिता अथवा अभिभावक के चेतन न रहने के चलते।
मुकेश मानस से दिल्ली में मेरी भेंट सन 2018 के मार्च 28 को हुई थी, तब मैं अपनी आंखों के इलाज के क्रम में गया था। यह कोई तीन साढ़े तीन घंटे की भेंट थी। मुकेश ने मुझे अपने घर पर बुलाया, हालांकि मैं उनके घर न जा सका, तय समय से देर हो गयी थी। वहाँ जाता तो कुछ अन्य जरूरी काम सधने में दिक़्क़त होती। वे अपने फ्लैट से निकल कर कार से आ पहुंचे, जहां उन्होंने मुझे इंतजार करने को कहा था। हमारा प्लान प्रथम हिंदी दलित आत्मकथा ‘अपने अपने पिंजरे’ के मशहूर लेखक मोहनदास नैमिशराय से उनके घर पर मिलने का था। रास्ते में ही उन्होंने एक और शख्स, हिंदी-मराठी कवि, शेखर भी उनके घर के पास से ले लिया और हम तीनों नैमिशराय से मिले। वापसी में हम एक रंग थियेटर में भी गए जहाँ एक भोजपुरी संगीत का कार्यक्रम था। वहाँ आयोजन से जुड़े पत्रकार निराला से भी मुलाक़ात हुई। नैमिशराय जी से मिलने के क्रम में मुकेश मानस से एक अच्छी दीर्घ भेंट तो हो गयी थी लेकिन उनसे मिल-बैठकर एकांतिक बात करने की तीव्र भूख तो इसके प्रभाव में अभी जगी ही थी। अब इस भूख को मारने के अलावा चारा ही क्या है! वैसे भी, समय में ऐसी ताक़त होती है कि वह सभी तरह के भूख-प्यास सब सोख लेता है, उन्हें भूलने – बिसारने को हमें बाध्य कर देता है! यही जीवन सत्य है, अटल, अटाल्य, विषम और क्रूर सत्य!
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आलेख :
डॉ. मुसाफ़िर बैठा
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