स्मृतियों की चिन्दियाँ
पाखियों सी उड़ रही हैं
स्मृतियों की चिन्दियाँ,
तेज झोंके हैं हवा के
किधर मुडेंगी ये चिन्दियाँ।
उमंग की लहरें उठातीं
वो उडेंगी चिन्दियाँ,
कंटकों में फंस गईं तो
दंश देंगी चिन्दियाँ,
ज्वार-भाटों को उठाने
निकल पड़ीं हैं चिन्दियाँ।
अल्हड़ से तरुणी हो जैसे
थककर खोई नींद में,
कुमुदनी के साथ खिलकर
जग रही ये चिन्दियाँ,
युगों की निद्रा हैं त्यागी
स्वप्न का संसार भी,
किस तरफ अंगड़ाई जाने
आज लेंगीं चिन्दियाँ।
पाखियों सी उड़ रही हैं
स्मृतियों की चिन्दियाँ।
आंधियों के तेज सी
बौखलाई चिन्दियाँ,
कोटि सूर्यों की धुति को
बांध लायीं चिन्दियाँ,
आँख क्या इनसे मिलाएँ
कौंध देंगी चिन्दियाँ,
जाने क्या कुछ ले उडेंगी
आवेग में ये चिन्दियाँ।
जन्म तूफानों से लेकर
बो रहीं हैं आंधियाँ,
आ गई जैसे क़यामत
जग रहीं हैं समाधियाँ,
कनखियों से मेरी तरफ फिर
देखती हैं चिन्दियाँ।
कांस के बिस्तर पे सोया
रखकर नीचे चिन्दियाँ,
फ़ांस सी अटकी रहीं हैं
अब तलक ये चिन्दियाँ,
सोई चिंगारी को देखो
मिल रही ज्यों फूंक हो
आग के ववंडर का सपना
सजो रहीं हैं चिन्दियाँ।
हर तरफ निस्तब्धता यों
जैसे कुछ बीता न हो,
धडकनें दिल की बढ़ाकर
खो गई हैं चिन्दियाँ,
रुक गए तूफां ववंडर
और प्रलय की आंधियाँ,
अधखुली पलकों के नीचे
फिर सो गई हैं चिन्दियाँ।
पाखियों सी उड़ रहीं हैं
स्मृतियों की चिन्दियाँ,
तेज झोंके हैं हवा के
किधर मुडेंगी ये चिन्दियाँ।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”