स्त्री
दैनिक रचना
रचनाकार – रेखा कापसे
दिन -गुरुवार
दिनाँक – 6/8/2020
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स्त्री………..
छोड़ आती पीहर अपना, तुम्हें अपना बनाती है
हर एक कोना घर का, बड़े सलीके से सजाती है
नन्हा बचपन माँ का आँचल, अंगना बाबुल का
ज़ब याद आता है उसे, नेह दूजो पर लुटाती है
प्रेम मान अपमान, ताने उलाहना स्वीकार्य होते उसे
ढूँढ गलती अश्रुपूर्ण नैनों से, फिर जुट जाती है
नये सिरे से खोजती है, तौर तरीके सलीका सब
बिखरे मन को समेट, नवसृजन गढ़ती जाती है
गिरती टूटती फिर संभलती, चलती रूकती नहीं है
लगता है कभी तो सब, सुचारु रूपम होगा जहां
थक जाती है, जवाब देने लगे सहनशक्ति और धैर्य
तब लड़ती है साथ चाहती है, पर मिलता है कहाँ
परम्पराओ कुरीतियों अंधविश्वास से पस्त होती है
कुचला जाता है मन, फुट फुट कर आत्मा रोती है
यूँ तो सहनशीलता कूट कर भरी है परमात्मा ने
वार ज़ब जज्बातों पर होता, हौसला वह खोती है
विद्रोह करते करते एकदिन ख़ामोशी ओढ़ लेती है
तृण तृण बिखरे सपने, बीच राह वह छोड़ देती है
कठोर हिय कर, उम्मीदें त्याग देती है सारी तुमसे
घुटती है हरदम वो नाता, तन्हाइयों से जोड़ लेती है
फिर भी इंतजार होता, काश हमसफ़र समझें मुझे
सिसकती है अकेले में, दफन अश्रु करती सीने में
शनै शनै मरती है वह, छोड़ देती है आस जीने की
काश साथी समझे, वजह ना रहे कभी जहर पीने की
रेखा कापसे
होशंगाबाद मप्र
स्वरचित रचना,,, सर्वाधिक सुरक्षित