स्त्री मन
विधा-कविता
शीर्षक-स्त्री है रिश्तों में प्रधान
स्त्री के मन की थाय न जान सका है कोई ओर।
स्त्री मन है सागर,रात गई, बात गई हुई सुहानी भोर।।
सब कुछ सहती,पर घर परिवार के खातिर,उफ़ न करती।
पृथ्वी जैसी सहनशील, और पर्वत जैसे धेर्यवान है ममता और करूणा की मूर्ति।।
बेटी से लेकर देवी तक,हर रूप में हैं पूजी जाती।
फिर भी समाज में नारी अबला ही कहलाती।।
मैं इक स्त्री हूं, फिर भी स्त्री के मन को वया न कर पाती।
चाहें कितने भी दुख दर्द हो, पर वह चारों पहर मुस्काती।।
भगवान ने फुरसत से बनाया स्त्री को,पर भूला उसके मन को।
स्वयं है जगत जननी, पर पाती है असुरक्षित स्वयं को।।
स्त्री मन है प्यार का सागर, जहां मिलें प्रेम, समर्पित हो जाती।
सबके सपनों के खातिर, अपने सपने कभी संजो न पाती।।
त्याग की देवी है स्त्री, स्त्री से ही है सारे रिश्ते नाते।
लक्ष्मी, सरस्वती,शारदा, दुर्गा सारी शक्ति है स्त्री में है, हम सब गाते।।
स्त्री है पृथ्वी की धुरी, वंदना अर्चना, पूजा ,आराधना, प्रेरणा, आरती, संध्या सब में पाई जाती।
दो मीठे बोल की खातिर अपना सर्वस्व कुर्बान करती।।
अपने कर्तव्यों को पूरा कर, अधिकारों की भनक न लगने देती ।
स्त्री मन है महान, देती है जीवन भर, पर लेने का नाम न लेती।।
नव रसों से कर श्रृंगार,रिश्तों के बंधन को प्रेम से सींचा करती।
निस्वार्थ भाव से करती जीवन आलोकित, शिकायत कभी ना करती।।
स्त्री मन है बृहमांड जैसा विशाल,
हैं श्रृष्टि की रचनाकार,पर अहिकार नहीं करती।
सीता, राधा, मीरा बन ,हर युग में संस्कृति ,सभ्यता व संस्कारों का संरक्षण करती।।
मां,वेटी,वहन, पत्नी, दादी, नानी, बुआ सब रिश्तों में है स्त्री विद्धमान।
अवला नहीं सवला कहो, स्त्री को फुरसत से बनाया है आपने भगवान।।
तुम बिन नहीं है,तीनों लोकों में समाज की कल्पना।
नारी है प्रथ्वी की धुरी, संसार की रचाई तूने अल्पना।।
विभा जैन( ओज्स)
इंदौर (मध्यप्रदेश)