स्त्री- एक अनकही दास्तां।
हम लेते है हर समय; उसकी परीक्षा।
परीक्षा…
उसके होने की, उसके वजूद की,
उसके काम की, परीक्षा उसके संयम की..!
वो सिर्फ़ और सिर्फ़ सुनती है।
सुनती है…
हमारे आदेश, झूठे उपदेश,
सुनती है रिवाजों के आड़ में लगी बंदिशें..!
पलटना नहीं सीखा उसने अभी तक।
नहीं सीखा…
उसने क्यों का उत्तर देना, प्रत्युत्तर देना,
नहीं सीखा शब्दों को प्रकट करना..!
हमारे लिए बदलती जाती है।
बदलती है…
अपनी ख़ुशियाँ, अपने सपने,
अपनी आदतें, बदलती हैं अपनी चाहतें..!