स्तरीय निर्देशन से ही बनता है भव्य सिनेमा
शीर्षक – 【 ” -स्तरीय निर्देशन से ही बनता है भव्य सिनेमा- ” 】
फिल्म-निर्माण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हर पक्ष ( पहलू ) पर गंभीरता से विचार करने के पश्चात उसे सिनेमा के रूपहले पर्दे तक पहुंचाया जाता है । प्री-प्रोडक्शन से फ़ाइनल एडिटिंग एवं डबिंग तक सभी कार्य व्यवस्थित तरीक़े से किये जायें तभी यह आश्वस्ति होती है कि फ़िल्म दर्शकों को शायद पसंद आ जाये । गीत ,संगीत ,पार्श्वगायन ,छायांकन ,नृत्य निर्देशन सभी विभागों में अत्यंत परिश्रम के पश्चात एक फ़िल्म तैयार होती है परंतु इन सभी विभागों में सामंजस्य स्थापित कर पात्रों से जीवंत अभिनय करवाने वाला एक मात्र व्यक्ति होता है.. वो है उस फ़िल्म का निर्देशक या डायरेक्टर ,जो ” कैप्टन आफ़ द शिप ” कहलाता है । उसका विज़न ,सोच एवं नीति उत्कृष्ट होना चाहिये तभी एक ब्लाकबस्टर फ़िल्म ,दर्शकों तक पहुंचती है । उदाहरण के तौर पर दक्षिण की आर-आर-आर ,जिसको ब्लाकबस्टर बनाने में क़िरदारों के अतिरिक्त उसके निर्देशक एस.एस.राजामौली का सराहनीय योगदान है । उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों को पुनः शूट किया, हालांकि फ़िल्म के निर्माता यह भलीभांति जानते थे कि ऐसी भव्य फ़िल्म के सीन्स दुबारा शूट होने पर बजट में भी इज़ाफ़ा होगा परंतु वो राजामौली की फ़िल्म बनाने की सूझबूझ से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ थे । फ़िल्म का बजट अपेक्षाकृत अधिक ज़रूर हो गया परंतु फ़िल्म मार्च में रिलीज़ होने के बावजूद आज तक बहुत से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है हालांकि ओटीटी प्लेटफार्म पर भी फ़िल्म को बेहतरीन रिस्पांस मिला है । सुना है के.जी.एफ़ फ्रेंचाइजी के सफ़लतम निर्देशक प्रशांत नील ,अपनी आने वाली प्रभास अभिनित फ़िल्म ” सालार ” की पटकथा में भी कुछ बदलाव कर कुछ हिस्सों की शूटिंग फ़िर से कर रहे हैं , हालांकि फ़िल्म अभी महज 40 प्रतिशत ही शूट हो पायी है परंतु प्रशांत नील ,के.जी.एफ़ 2 की भव्य सफ़लता को पुनः दोहराना चाहते हैं इसीलिये वो उत्साहित होने के साथ साथ सावधानी भी बरत रहे हैं । यही एक अनुभवी फ़िल्म मेकर की पहचान होती है वो आज के दर्शकों की नब्ज़ टटोलना जानता है । हालिया रिलीज़ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित ” सम्राट पृथ्वीराज ” भव्य बजट में बनी होने के बावजूद बाक्स आफ़िस पर अपनी लागत का आधा भी नहीं कमा सकी । अच्छी स्टारकास्ट ,बेहतरीन वीएफएक्स ,मधुर संगीत के बावजूद अक्षय कुमार की फ़िल्म
भंसाली की पदमावत और बाजीराव मस्तानी के आगे पानी भरते नज़र आती है …आख़िर क्यों ?
यहां पर शायद सबसे बड़ा अंतर है संजय लीला भंसाली के लार्जर देन लाइफ़ सिनेमा और चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साधारण व सतही निर्देशन में । हालांकि पृथ्वीराज के लिए द्विवेदी सर ने बहुत लंबे समय तक शोध किया …कहानी ,पटकथा और दूसरे पहलूओं पर ,परंतु फ़िर भी वो जादू उनके निर्देशन में नदारद है । बहुत से दृश्य अनुपम बन सकते थे परंतु वो महज साधारण रहे । फ़िल्म का मज़बूत पक्ष उसका क्लाइमेक्स होता है जो पृथ्वीराज में स्तरीय नहीं था ।
आपको एक और उदाहरण देना चाहूंगा फिल्म ” कुली ” का ,जिसके निर्देशक मनमोहन देसाई थे जो उस ज़माने के राजामौली थे …उनकी ज़्यादातर फ़िल्में सुपरहिट रही हैं ।
कुली के क्लाइमेक्स में अमिताभ बच्चन जी को कादर खान सर के हाथों मरना था …परंतु कुली फ़िल्म की शूटिंग के दौरान अमिताभ जी बुरी तरह एक्शन सीन में पुनीत इस्सर के हाथों घायल हुए और कई दिनों तक अस्पताल में मौत -ज़िंदगी से लड़कर सकुशल लौटे । तब बहुत सोचने समझने के बाद मनमोहन देसाई ने ऐनमौके पर क्लाइमेक्स बदल दिया और अमिताभ बच्चन जी को ज़िंदा रख़ दर्शकों को ख़ुश कर दिया
कुली ,ब्लाकबस्टर साबित हुई । इसे कहते हैं निर्देशक की सूझबूझ और चालाकी ।
अंत में यही कहूंगा कि भव्य और शानदार सिनेमा बनाने के लिए स्तरीय निर्देशन अत्यंत आवश्यक है । निर्देशक ,सिनेमा की तकनीकी बारीकियों से परिचित होता है और दर्शकों को वही दिखाता है जो वो चाहते हैं लेकिन एक रोमांचक अंदाज़ में ,तभी तो कुछ फ़िल्में अविस्मरणीय बन जाती हैं ।।
© डॉक्टर वासिफ़ काज़ी
【 लेखक ,फ़िल्म समीक्षक ,शायर एवं स्तंभकार हैं 】
©काज़ीकीक़लम
इंदौर ,जिला -इंदौर ( मध्यप्रदेश )