स्कूल गेट पर खड़ी हुई मां
स्कूल गेट पर खड़ी हुई मां
देख रही ओझल होते बच्चे
ले जाती संग भविष्य स्वप्न के
कुछ भावों के ज्वार बड़े कच्चे।
प्रति पल संवार रही है माँ
हंसकर जीवन की फुलवारी
नित नित उखाड़ती खर पतवार
सिंचित करती हर क्यारी।
क्या बगिया सुंदर फूलों से
रंग सुगंध से भर जाएगी?
या कुछ शाख अलग सी बढ़कर
कांटे बहुत चुभाएँगी?
जाने काल हाथ धरा क्या,
क्या स्वप्निल पल लहरायेंगे?
या वृक्ष बिना घोसलों के,
कोटर भर रह जाएंगे।
क्या बड़े बड़े कमरों में
दो छायाएं भर रह जाएंगी
या विकास का दम भर भर
प्रतिबिंब स्वयं बन जाएंगी।
युवा मस्तियों में चेहरे की
सिकुड़न और अधिक होगी
देखेगी माँ जब रस्ता बचपन का
सीने में दुख की एक धधक होगी।
नन्ही उंगली की गर्माहट
ताजी होगी सांझ तक,
और उसी मोहक बोली की
चाह रहेगी सांस तक।
स्कूल गेट जब जब देखेगी
नन्हा सा बचपन मिल जाएगा
बुढ़ापे की टूटी बैशाखी पर
नन्हा कन्धा फिर टिक जाएगा।
~माधुरी महाकाश