सौदागर हूँ
सौदागर हूँ
तुलसी सुर कबीर विधा को,
करता नित्य उजागर हूँ।
स्वर व्यंजन का व्यापारी हूँ,
मैं शब्दों का सौदागर हूँ।
स्वर सुरा सुराही पैमाना,
व्यंजन मेरी मधुशाला है।
साकी बन शब्द छकाते खुब,
सृजन होता मतवाला है।
आपस में मिलकर स्वर व्यंजन,
जन का मनोरंजन करते हैं।
वैखरी मध्यमा पश्यंती
महफ़िल में गुंजन करते हैं।
कतिपय पद छंद गीत मिश्रित,
बस एक छलकती गागर हूँ।
स्वर व्यंजन का व्यापारी हूँ,
मैं शब्दों का सौदागर हूँ।
होता शरीक उस वज़्म में मैं,
ग्राही जब कोई मिलता है।
हृदयांगन में तब शब्द कमल,
कविता बन करके खिलता है।
प्रतिदिन कुछ न कुछ करता हूँ,
एक एक पुष्पों से भरता हूँ।
इस तरह से चन्द बटोर सका,
उपवन से थोड़े तोड़ सका।
अक्षर स्वर व्यंजन जिह्वा पर
आहत हों तभी उचरते हैं।
कोई कहीं मिले कभी कोई मिले,
इस तरह से सभी विचरते हैं।
न नदी, सरोवर ताल हूँ या
न ही कोई गहरा सागर हूँ।
स्वर व्यंजन का व्यापारी हूँ,
मैं शब्दों का सौदागर हूँ।
एक शब्द अनाहत है भाई,
नौबत सम हर पल बाज रहा।
उसी शब्द सहारे ब्रह्म खण्ड,
बिन आहत हो सब साज रहा।
अनहद अक्षर कोई सन्त कवि, लिखता सुनता और गाता है।
ऐसी कविता निज सेवक को,
विधि देकर खुद सुनवाता है।
एक सन्त अनाहत नाद दिया,
निर्मूल सकल परिवाद किया।
नित संध्या बन्दन करता हूँ,
कविता से झोली भरता हूँ।
निर्गुणी था गुरु कवि कृपा से,
मैं भी अब एक गुनागर हूँ।
स्वर व्यंजन का व्यापारी हूँ,
मैं शब्दों का सौदागर हूँ।